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श्लो. : 1
सम्यग्ज्ञान यथार्थ आगम से होता है । आगम की उत्पत्ति आप्त (सच्चे देव) से है, इसलिए यह आप्त पूजनीय है, जिसके प्रसाद से बुद्धि तीव्र होती है। निश्चय से साधु जन किये गये उपकार को नहीं भूलते । मंगल में तीन प्रकार के देव का वन्दन किया जाता है - इष्ट, अधिकृत एवं अभिमत । इन तीन प्रकार के देवों का तात्पर्य समझना कि जिनको नमस्कार किया जा रहा है, वह अपने लिए इष्ट- प्रिय होना चाहिए; अधिकृत जिनका यहाँ अधिकार चल रहा हो एवं अभिमत अर्थात् जो माननीय हों ।
नमस्कार भी तीन प्रकार का होता है- 1- आशीर्वादात्मक, 2- वस्तु-स्वरूपात्मक एवं ३- स्तुत्यात्मक ।
मंगल दो प्रकार का होता है- एक मुख्य मंगल एवं दूसरा गौण - मंगल |
स्वरूप-संबोधन - परिशीलन
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मुख्य-मंगल जिनेन्द्र-गुण-स्तवन ।
गौण-मंगल सिद्धार्थ, पूर्ण- कुम्भ, वंदन - माला, श्वेतच्छत्र, आदर्श-दर्पण, नाथ, स्वामी, कन्या, जय। जिन जिनवरों ने व्रत - नियम-संयमादि गुणों के द्वारा परमार्थसाधन किया है और जिनकी सिद्ध संज्ञा है, इसलिए वे सिद्धार्थ - मंगल हैं । जो सर्व मनोरथों से और केवलज्ञान से पूर्ण हैं, ऐसे अरहंत इस लोक में पूर्ण - कुम्भ मंगल हैं। किसी द्वार से निकलते या प्रवेश होते समय वंदित होने वाले चौबीस तीर्थंकरों के प्रतीक रूप 24 पत्रों वाली वंदन - माला को मंगल कहा है । जगत् के पापियों के लिए अरहंत भगवान् सुख के कर्त्ता हैं व छत्र के समान रक्षक हैं, इसलिए श्वेतच्छत्र को मंगल कहा है। अरहंतों के श्वेत वर्ण, शुक्ल ध्यान व शुक्ल लेश्या और चार अघातिया कर्म शेष होने के कारण श्वेतच्छत्र को मंगल कहा है। जैसे- दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकता है, वैसे ही जिन जिनेन्द्रों के केवलज्ञान में लोक- अलोक दिखता है, इसलिए वे आदर्श-मंगल हैं, वैसे जगत् में राजा और बाल - कन्या को भी मंगल जानना चाहिए । जिन्होंने कर्म - शत्रुओं को जीतकर मोक्ष प्राप्त कर लिया है, ऐसे चारों घातिया रूपी शत्रु के दल को जीतने से अरहंत परमेष्ठी जय-रूप मंगल है | आगम में मंगल के और-भी दो भेद किये गये हैं- एक निबद्ध - मंगल और दूसरा अनिबद्ध-मंगल। जो स्वयं ग्रंथकर्त्ता के द्वारा लिखित होता है, वह निबद्ध - मंगल एवं जो दूसरे ग्रन्थ से