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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 1
परमात्मा-वाची शब्दों का उच्चारण-मात्र करने से कुछ होता है क्या? ..इस बात का सुंदर समाधान भगवत् श्री यतिवृषभ आचार्य स्वामी इसप्रकार ने किया है
गालयदि विणासयदे घादेदि दहेदि हंति सोधयदे। विद्धंसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं।।
___ -तिलोयपण्णत्ति, 1/9 अर्थात् वह इसलिए मंगल है, क्योंकि यह कु-मलों को गलाता है, विनष्ट करता है, घातता है, दहन करता है, शुद्ध करता है और विध्वंस करता है।
शंका- वर्तमान में कुछ ज्ञानियों ने बिना जय-मंगल एवं मंगलाचरण के शास्त्र-प्रवचन एवं धर्मोदेश करना प्रारंभ कर दिया है, तो क्या ऐसा करना भी आचार्य व आगम-परम्परा है? __ समाधान- नहीं, बिना मंगलाचरण किये व जय-मंगल किये कोई मंगल-कार्य नहीं होता, फिर शास्त्र-वचन, धर्मोपदेश कैसे हो सकता है?... यह उक्त ज्ञानियों की स्वच्छंद चेष्टा मात्र है; आगम-वचन तो यही है कि सर्वप्रथम मंगलाचरण तो होना ही चाहिए। कहा भी गया है
पुविला इरिएहिं मंगं पुणत्थ-वाचयं भणियं । तं लादि हु आदत्ते जदो-तदो मंगलं पवरं।।
___ -तिलोयपण्णत्ति, 1/16 अर्थात् पूर्व में आचार्यों द्वारा मंगल-पूर्वक ही शास्त्र का पठन-पाठन हुआ है तथा यह मंग अर्थात् मोद एवं सुख को निश्चय से लाता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए यह मंगल श्रेष्ठ कहा गया है- इस आगम-वचन को समझना चाहिए। मंगल नहीं करना आगम-व्यवस्था नहीं है, इसे अनागमी-व्यवस्था जानना चाहिए । आस्तिक, गुण-सम्पन्न पुरुष सर्व-प्रथम इष्टदेव को नमस्कार करके उपकार का स्मरण करता ही है। लोक में पापी बहुत हुए हैं, परन्तु पापियों में भी महापापी वे होते हैं, जो अपने उपकारी के उपकार को नहीं स्वीकारते। साधु-पुरुष प्रति-क्षण अपने प्रति किये गये उपकार का ध्यान रखते हैं, कहा भी है
अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः, स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात्। इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्मबुद्धि नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।। -पंचास्तिकाय टीका 1/18 में उद्धत