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श्लो. : 1
घाति चतुष्टय के घातक, केवलज्ञान दिवाकर से शोभायमान, जगत्त्रय को युगपद् जानन-हारे, भव्यों के हितकर, भव-मोक्ष से युक्त, अठारह दोषों से रिक्त, छियालीस गुणों से भूषित, सर्वोदयी शासन के उद्घोषक, समोसरण सभा के स्वामी, श्री वृषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थेश वर्धमान स्वामी - पर्यन्त सम्पूर्ण तीर्थकर, अरहन्त-भगवन्त मेरी आत्मा को पवित्र करें। स्याद्वाद - सिद्धांत के निबद्धक, जगत् के जीवों को मोक्षमार्ग के प्रदर्शक, सर्वज्ञ-सभा के शिरोमणि श्री वृषभसेन आदि करके श्री गौतम गणधर पर्यन्त वसुधा पर विराजे सम्पूर्ण गणधर - भगवन्तों को मैं नमस्कार करता हूँ।
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
मिथ्यामार्ग का खण्डन करने वाली, वीतराग- सन्मार्ग का मण्डन करने वाली, भव्यों के भावों का शोध करने वाली, चित्त को चैतन्य-धर्म समझाने वाली, स्वानुभूति के झूले में झुलाने वाली, सर्वज्ञ - मुख से विनिर्गत स्याद्वाद - अनेकान्त की मूर्ति वाग्वादिनी सरस्वती देवी मेरे कण्ठ में विराजें । हे देवी! तूने अनेक अज्ञों को विज्ञ बनाया है; तेरे शुभाशीष से कोटि-कोटि योगीश्वर कैवल्य को प्राप्त हुए हैं। अहो शारदे ! मेरे ऊपर भी दृष्टिपात करो, मेरी प्रज्ञा को प्रशस्त करो। पर भावों से भिन्न निज-भाव को पहचानते हुए स्वानुभूति में लीन हो जाऊँ, जब-जब स्वानुभूति से बाहर आऊँ, तब-तब तेरे चरणों में बैठा रहूँ, पुनः पुनः प्रार्थना, अहो! हंस-गामिनी मैं पर में न जाऊँ, पर मेरे में न आएँ । हे विद्वानों की जननी ! क्या आपकी दृष्टि में भी द्वैत-भाव है, रागियों के अंदर जगत्-प्राणियों में द्वैत-पना रहता है, आप तो वागीश्वरी कुमारी हो, कुमारी की दृष्टि में किसी के प्रति भी कुदृष्टि नहीं होती, उसे तो प्रत्येक पुरुष पुरुष ही दिखता है, अन्य कोई संबंध कुमारी के सामने उपस्थित नहीं होते । भो ब्रह्मचारिणी! बस, मुझे इतना ही आशीष चाहिए कि मैं अपने ब्रह्म में विचरण करता रहूँ। अहो जगत् मातेश्वरी! जब आप जगन्माता हैं, तो माता को अपने पुत्र की चिंता स्वयं होती है, अनेक वत्सों में इस वत्स को भी निहारो, इसकी प्रज्ञा चलायमान् है। इसे अचल प्रज्ञा प्रदान करो। हे ब्रह्मणी! पर-भाव-रूप अब्रह्म-भाव का अभाव करो, कुभावों को मेरे अन्तःकरण से पृथक् करो। हे वरदे ! ऐसा वरदान दो कि मैं स्व-मार्ग से दूर न रहूँ । हे वाणी! तेरे प्रसाद से गणधर की पीठ पर तेरे चरणानुरागी की वाणी विराम न ले । हे भाषे! मेरी भाषा स्खलित न हो, अहो श्रुत देवी! मैंने जगत् के कु-श्रुतों को जानकर उनके खोटे परिणामों को समझकर परित्याग किया है, अब मात्र तेरे पाद-मूल में बैठकर आराधना कर रहा हूँ। आप ही मुझे इष्ट हैं, अभिमत हैं, अबाधित हैं । अन्य