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श्लो . : 1
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
मंगलाचरण
उत्थानिका- आचार्य भगवन्त के श्री-चरणों में अन्तेवासिन् जिज्ञासा प्रकट करता है- भगवन्! मुक्त के साथ अमुक्त सिद्धों की वंदना क्यों?.... यदि अमुक्त हैं, तो सिद्ध कैसे?.... सिद्ध हैं, तो अमुक्त कैसे?... भगवन्! इस विरोधाभास को अवश्य ही समझाएँ। समाधान- आचार्य देव करुणा-दृष्टि से शिष्य की जिज्ञासा का समाधान करते हैं
मुक्तामुक्तैकरूपो यः, कर्मभिः संविदादिना'।
अक्षयं परमात्मानं, ज्ञानमूर्ति नमामि तम् ।। अन्वयार्थ- (यः) जो, (कर्मभिः संविदादिना) कर्मों से तथा सम्यग्ज्ञान आदि से क्रमशः, (मुक्तामुक्तैरूपः) मुक्त और अमुक्त होता हुआ एक-रूप है, (तम्) उस, (अक्षयं) अविनाशी, (ज्ञानमूर्ति) ज्ञानमूर्ति, (परमात्मानं) परमात्मा को, (मैं भष्ट अकलंक) (नमामि) नमस्कार करता हूँ||1||
मंगल-भावना- आचार्य भगवन् अकलंक स्वामी भारतीय तत्त्व-मनीषा की परंपरा के एक प्रधान आचार्य हुए हैं, जिन्होंने जैनदर्शन के पक्ष को त्रिलोक-मंडित किया है। जगत् के अज्ञ जीवों को समझाने के लिए संव्यवहार प्रत्यक्ष शब्द का सूत्रपात कर जैनन्याय में एक नया मोड़ दिया, जिसे उत्तरवर्ती सम्पूर्ण विद्वानों ने नत-मस्तक होकर स्वीकार किया। भारत-भूमि के वे क्षण अहो-भाग्यशाली रहे होंगे, जिन क्षणों में आचार्य अकलंक स्वामी सिंह की भाँति एकान्त-दृष्टि से दूषित, उन्मत्त, पर-मत-रूपी हाथियों के कुमत-रूपी मस्तिष्क को विदारित कर स्याद्वाद्-चिह से चिहित जिन-शासन का संवर्धन कर रहे थे, जिन्होंने क्षणिक-वादियों से भारत-वसुधा को रिक्त कर दिया था, ऐसे ग्रन्थकर्ता आचार्य भगवन् श्री अकलंक स्वामी जयवन्त हों। परम वीतराग-दशा जिनकी प्रकट हो चुकी है, भव्यत्व-भाव का भी जो अभाव कर चुके हैं, -ऐसे अशरीरी सिद्ध परमेश्वर हमें अविनाशी पद प्रदान करें।
1. कुछ विद्वान् ‘संविदादिना' की जगह 'संविदादिभिः' पाठ भी मानते हैं, पर प्राचीन संस्कृत-टीका में 'संविदादिना' .
पाठ ही मिलता है; इसके साथ ही साथ अधिकांश प्रतियों में भी 'संविदादिना' पाठ ही उपलब्ध है, अर्थ की दृष्टि से भी यही समुचित प्रतीत होता है, अतः यह पाठ ही यहाँ स्वीकारा गया है।