________________
श्लो. : 1
स्वरूप - संबोधन-परिशीलन
कोई वीणा वादिनी मुझे इष्ट नहीं । अल्प-धी रागी जीवों के द्वारा कल्पित सरस्वती का मैं उपासक नहीं हूँ, मैं तो मात्र आपका ही उपासक हूँ। उसका कारण यह है कि आप अरहन्त-मुख से प्रवाहित हैं, आपका उद्गम स्थल वीर - हिमाचल है । हे वाग्गंगे! आपके श्री-पाद में इसलिए अनुरंजित हूँ, क्योंकि आप गुरु गौतम गणधर के कुण्ड में स्थिर होकर फिर परंपरा से आचार्यों के मध्य में प्रवाहित होती रही हैं, इसलिए निर्मल हैं, कुशासन का आपके यहाँ सम्मान नहीं है । नमोऽस्तु - शासन का किञ्चित् भी अपमान नहीं है। जहाँ नमोऽस्तु शासन का अपमान होता है, वहाँ हे गौ! आपका निवास नहीं होता; इसलिए मैं कर मुकुलित करके आपकी आराधना कर रहा हूँ, क्योंकि बिना आराधना के आराध्य की उपलब्धि नहीं होती है, - यह मुझे भलीभाँति ज्ञात हो गया है। जो नर आराधना किये बिना आराध्य - पद की आकांक्षा रखते हैं, वे अल्पधी अग्नि में कमल - वन खिलाने की अभिलाषा रखते हैं । अहो सिद्धांत - शास्त्रों की उद्घोषिका वीतराग-वाणी! मैंने आपसे ही सीखा है कि आराधना करने वाले की नास्तिकता का परिहार होता है और उसके द्वारा शिष्टाचार का परिपालन, पुण्य का लाभ, निर्विघ्न कार्य की समाप्ति एवं श्रेयोमार्ग की प्राप्ति भी होती है । हे पुण्य-दायिनी, काम-दायिनी, काम-धेनु, अशरीरी स्वरूप में विलीन करने वाली श्रुतदेवी! आप कितनी महान् हैं ..... क्या इस अवनि-तल पर आपसे भी कोई विशिष्ट है ?... मैंने वृद्धों के मुख से, गुरुओं के पाद-मूल में बैठकर विद्वानों की सभा में आपसे श्रेष्ठ किसी को नहीं सुना। आपका निवास कमल-वन नहीं, उपवन नहीं, सिंहासन नहीं, हंसासन नहीं, आपका निवास-स्थान लोक में सर्वोपरि अनुपम ही है । हे सरस्वती! तेरे पुण्य भाग्य को व्याख्यायित करने के लिए गणधर परमेष्ठी में भी सामर्थ्य नहीं है। मैंने ध्यान, अध्यात्म, मंत्रों एवं शास्त्रों में आपका निवास अर्हन्-मुख पढ़ा है। हे अर्हन्-मुख-निवासिनी ! मेरे पाप-मल का क्षय करो | हे सरस्वती ! आपके प्रसाद से मेरे पापों का विनाश हो, मुझे श्रुतज्ञान- स्वरूप बोध एवं भेदाभेद बोधि की प्राप्ति हो, परिणामों में विशुद्धि हो, स्वात्म-तत्त्व की उपलब्धि हो, शिव - सौख्य की सिद्धि हो । अन्य कोई प्रयोजन मेरा नहीं है । हे एकान्त मूर्ति ! नित्य ही मेरे हृदयावास में प्रकाश करो, ताकि मैं आपके प्रसाद से परिशीलन को पूर्ण कर सकूँ ।
I
T
13
श्रुताराधना के बाद मैं अल्पधी गुरु- आराधना का विचार करता हूँ। जगत्त्रय, लोकत्रय में निश्चय से शुद्धात्मा एवं व्यवहार - नय से पंच परम गुरु मंगलोत्तम शरण-भूत हैं। आचार्य भगवन्त कुन्दकुन्द स्वामी प्रसन्न हों, जिन्होंने वीर - शासन में द्वितीय श्रुतस्कन्ध पर लेखनी चलाकर भव्यों को अशरीरी भगवान् आत्मा का स्वरूप