________________
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
को निपुण बनाती है। कौटिल्य ने इस विद्या को सभी विद्याओं का प्रदीप और सभी धर्मों का आधार बताया है। जैनाचार्य श्री सोमदेव ने इस विद्या को हेतुओं द्वारा कार्यों के बलाबल का विचार करने वाली बतलाया। मनुस्मृति में आन्वीक्षिकी को आत्म-विद्या कहा है। इसप्रकार 'न्याय' शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार इसके द्वारा वस्तु-तत्त्व का निश्चित और निर्बाध ज्ञान होता है ।
न्यायदर्शन का उद्भव अन्य प्राचीन दर्शनों से अर्वाचीन है। जब नागार्जुन की कृति में न्यायदर्शन के सिद्धान्त को अमान्य किया गया, तो असंग और वसुबंधु ने न्यायशास्त्र की ओर ध्यान देकर तर्कशास्त्र पर तीन प्रकरण लिखे। उसी बौद्ध सम्प्रदाय में इसके पश्चात् दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने न्यायशास्त्र को यथार्थ रूप में मान्यता देकर बौद्धन्याय को प्रतिष्ठित किया। उन्हीं के पश्चात् जैन परम्पराओं में जैनन्याय के प्रस्थापक श्री अकलंकदेव का उदय हुआ ।
I
भट्ट अकलंकदेव के पूर्व का न्याय सम्बन्धी अभ्युदय इसप्रकार है । तेइसवें तीर्थकर ऐतिहासिक महापुरुष भगवान् पार्श्वनाथ के 250 वर्ष पश्चात् भगवान् महावीर हुए, जिनकी वाणी को प्रथम गणधर गौतम ने ग्यारह अंगों में स्व- समय का प्रतिपादन किया, किन्तु बारहवें दृष्टिवाद में 363 दृष्टियों का जो निराकरण था, वह लुप्त हो गया। ईसा की द्वितीय शताब्दी के लगभग आचार्य कुन्दकुन्द हुए, जिन्होंने ज्ञान की स्व पर प्रकाशकता को मान्यता दी। उन्होंने 'सर्वज्ञ' शब्द का उपयोग न कर निश्चय - दृष्टि से नयी व्याख्या की । यथा
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवली णाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं । ।
/ xli
नियमसार, 158
उनके उत्तराधिकारी आचार्य उमास्वामी ने "प्रमाणनयैरधिगमः" तत्त्वार्थसूत्र 1/6 के द्वारा प्रमाण और नय को समान स्थान दिया। उनके पश्चात् प्रसिद्ध स्तुतिकार स्वामी श्री समन्तभद्र हुए, उन्होंने एक ओर अपने इष्टदेव की स्तुति के ब्याज से हेतुवाद के आधार पर सर्वज्ञ की सिद्धि की तथा दूसरी ओर विविध एकान्तवादों की समीक्षा करके अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की। उनके ग्रंथों में अनेकान्तवाद के फलितवाद नय और सप्तभंगी का भी निरूपण है । सर्वप्रथम उन्होंने ही सर्वज्ञता की सिद्धि में अनुमान का उपयोग किया (समय लगभग 400 ई.) । यथासूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ - संस्थितिः ।।
आप्तमीमांसा, 5
सर्वज्ञता की इस मान्यता को कुमारिल भट्ट ने दोषपूर्ण बतलाया, जिसका परिमार्जन श्री अकलंकदेव द्वारा न्यायविनिश्चय में किया गया ।
इसप्रकार आचार्य श्री समन्तभद्र ने अनेकान्तवाद, उसका फलित सप्तभंगीवाद, अनेकान्त की योजना, प्रमाण का दार्शनिक लक्षण व फल बतलाया; स्याद्वाद की परिभाषा स्थिर की; श्रुतप्रमाण को स्याद्वाद और विशकलित अंशों को नय कहा तथा सुनय और दुर्नय की व्यवस्था की। सात भंगों का उपपादन उन्होंने इसप्रकार किया