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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
विधिनिषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिर्दिश एक एव । त्रयो विकल्पास्तव सप्तधामी स्याच्छब्दनेयाः सकलेऽर्थभेदे।।
. - युक्त्यनुशासन, 45 उन्होंने नय-विवक्षा इसप्रकार की
सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः। सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते।।
- स्वयंभूस्तोत्र, श्लो. 101 आचार्य सिद्धसेन की कृतियों में "सन्मति-तर्क" महत्त्वपूर्ण है; इसमें नयवाद और सप्तभंगीवाद की चर्चा मुख्य है; दूसरे काण्ड में ज्ञान और दर्शन की मीमांसा है। श्वेतांबर-आगम में केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन की उत्पत्ति क्रम से मानी गयी है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में इन दोनों की उत्पत्ति युगपद् मानी गयी है। इन दोनों मतों के सामने सिद्धसेन ने तर्क के आधार पर अभेदवाद की स्थापना कर निश्चय सिद्धि की है। तीसरे काण्ड में अनेकान्तदृष्टि से ज्ञेय-तत्त्व की चर्चा प्रधान रूप से है। समन्तभद्र की शैली का अनुगमन करते हुए उन्होंने सामान्यवाद, विशेषवाद, अस्तित्ववाद, नास्तित्ववाद, आत्म-स्वरूप-वाद, द्रव्य और गुण का भेदाभेदवाद, तर्क और आगमवाद, कार्य और कारण का भेदाभेदवाद, काक आदि पाँच कारणवाद, आत्मा-विषयक नास्तित्व आदि छह और अस्तित्व आदि छह वाद, इत्यादि विषयों का निरूपण करते हुए गुण-दोष बतलाये हैं। उन्होंने पर्यायार्थिक नय की भाँति गुणार्थिक नय को भिन्न मानने की जो चर्चा उठायी, उसे श्री अकलंक देव ने तत्त्वार्थवार्तिक में रखा है। उन्होंने बतलाया-"जितने वचनों के मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं, उतने ही पर-समय हैं।" इसप्रकार आचार्य श्री सिद्धसेन ने अनेकान्त दृष्टि के फलितवाद, सप्तभंगी और नयों का निरूपण कर जैनन्याय को परिपुष्ट किया। सन्मति-तर्क के अतिरिक्त बाइस बत्तीसियों (जिनमें न्यायावतार भी शामिल है) को भी श्री सिद्धसेन की कृति माना जाता है।
उनके पश्चात् आचार्य श्रीदत्त को "जल्प-निर्णय' ग्रंथ का रचयिता माना जाता है तथा उनकी वाद-शास्त्री के रूप में मान्यता है।
उनके बाद स्वामी श्री पात्रकेसरी की प्रसिद्धि को जिनसेनाचार्य ने निम्नप्रकार से शिलालेख में उल्लिखित किया है
महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत्।
पद्मावती-सहायाः त्रिलक्षणकदर्शनं कुर्वम्।। उन्होंने बौद्ध-दार्शनिकों के त्रैरूप्य या त्रिलक्षण का खण्डन करने के लिए त्रिलक्षणकदर्शन नामक शास्त्र की रचना की। वे सम्भवतः ईसा की पाँचवी सदी के बाद हुए। उनके पश्चात् मल्लवादी तथा सुमति हुए। मल्लवादी द्वारा रचित ग्रंथों में केवल "नय-चक्र' ही आज उपलब्ध है, जो सिंहसूरि-गणि-रचित टीका के रूप में ही प्राप्य है। सुमति द्वारा सन्मति-तर्क पर विवृति रचने का उल्लेख मिलता है। उन्हें सप्तक का रचयिता भी कहा है।
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