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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
'जिन' के द्वारा उपदिष्ट-दर्शन जैनदर्शन है, जिसके प्रमुख अंग इसप्रकार हैं- द्रव्यमीमांसा, तत्त्वमीमांसा, पदार्थमीमांसा, पंचास्तिकायमीमांसा, अनेकान्तविमर्श, स्याद्वाद्-विमर्श, सप्तभंगीविमर्श । इनका विस्तृत विवरण अनेक ग्रंथों में उपलब्ध है। ____ 'न्याय' शब्द की व्युत्पत्ति है- "नीयते परिच्छिद्यते वस्तु तत्त्वं येन स न्यायः" । यह वह विद्या है, जिसके द्वारा वस्तु के स्वरूप को निर्णीत किया जाये। न्याय-विद्या को 'अमृत' भी कहा जाता है,
योंकि न्यायविद्या अमृत के समान तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर बना देती है। जैन आगमों के तत्त्वज्ञान की उपलब्धि न्यायविद्या के बिना दुर्लभ बतलाई गयी है। षट्खंडागम में श्रुत के पर्याय नामों को उल्लेखित करते हुए इसका एक नाम हेतुवाद भी दिया है। इसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्कशास्त्र, और युक्तिशास्त्र कहा गया है।
तर्कशास्त्र में परोक्ष-प्रमाण के पाँच भेद माने गये हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। अनुमान के साध्य और साधन दो अंग होते हैं। साधन वह है, जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है। अविनाभाव दो प्रकार का है- सह-भाव-नियम और क्रम-भाव-नियम। इन दोनों प्रकार के अविनाभावों से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन न्यायशास्त्र में विस्तार रूप से वर्णित है। जैनन्याय ग्रंथों में अनुमान के दोषों पर भी चिन्तन किया गया है। इन्हें आभासों के रूप में क्रमश:-पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास वर्णित किया गया है।
ध्यान रहे कि अकलंक देव ने पक्षाभास के सिद्ध और बाधित प्रचलित भेदों के अतिरिक्त तीसरा पक्षाभास “अनिष्ट' भी प्रतिष्ठित किया है।
प्रमाण की भाँति नयों की विवक्षा भी गम्भीर है। इसतरह इन दोनों पर "प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र के आधार पर जैनन्याय का विशाल, भव्य भवन निर्मित हुआ है।
भट्ट अकलंक के पूर्व जैनन्याय में पारंगत आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य उमास्वामी, स्वामी समंतभद्र, सिद्धसेनाचार्य, श्रीदत्ताचार्य, स्वामी पात्रकेसरी, मल्लवादी और सुमति हुए हैं। कुन्दकुन्दाचार्य से लेकर सुमति आचार्य तक की दिगम्बर जैन परम्परा में जो दार्शनिक तत्त्वज्ञानी हुए, उन्होंने प्रमाण की रूपरेखा आगमिक शैली से निर्धारित की। उनका ध्यान मुख्य रूप से अनेकान्तवाद या स्याद्वाद और उसके फलितार्थ सप्तभंगीवाद और नयवाद की स्थापना तथा विवेचन की ओर ही केन्द्रित रहा। इसप्रकार जैनदर्शन को अनेकान्त-दर्शन के रूप में देखा जाने लगा। इसका प्रमुख श्रेय आचार्य समन्तभद्र को जाता है, जिनके स्तुति आदि रूपों में गहन व विस्तृत विवेचन के पश्चात् भी नयी विद्या सामने न आ सकी। न्यायावतार भी इस स्थिति से आगे न बढ़ सका। यद्यपि न्याय शास्त्र के एकएक अंग से संबंधित "अल्प-निर्णय" और "त्रिलक्षण-दर्शन"-जैसे ग्रंथ रचे गये, किन्तु वे पूर्व-भूमिका रूप ही थे, किन्तु उनमें दिङ्नाग के न्याय-प्रवेश और प्रमाण-समुच्चय-जैसे तथा धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु, प्रमाणवार्तिक-जैसे ग्रंथों की संपूर्ण रूपरेखा उपलब्ध नहीं होती थी।
भट्ट अकलंक देव का पराक्रम
भट्ट अकलंकदेव के विशाल अंशदान हेतु हम इसकी पूर्व पीठिका प्रस्तुत करना आवश्यक मानते हैं। न्यायशास्त्र को तर्कशास्त्र, हेतुविद्या और प्रमाणशास्त्र भी कहा जाता है, किन्तु इसका प्राचीन नाम आन्वीक्षिकी है। संकट अथवा आनन्द में यह विद्या बुद्धि को स्थिर रखते हुए प्रज्ञा, वचन और कर्म