________________
स्वरूप-संबोधन- परिशीलन
वे दोनों न्याय के संदर्भ में निरन्तर प्रमाण को देखते हैं। एक और खास बात यह है कि भारतीय न्याय - शास्त्र की परम्परा के तीनों घटक तत्त्वों / पदार्थों की बात करते हैं, इसलिए तीनों इस बिन्दु पर सहमत हैं कि उन्हें पदार्थों या तत्त्वों की सिद्धि करना है और तीनों में असहमति इस बिन्दु पर है कि तीनों पदार्थों / तत्त्वों का स्वरूप और संख्या अपनी-अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग-अलग मानते हैं। इसलिए तीनों भारतीय न्याय - शास्त्र के समवेत रूप में वाहक होते हुए भी जैन-न्याय, बौद्ध-न्याय और न्याय - शास्त्रीय - न्याय के रूप में अपनी अलग-अलग पहचान बनाये हुए हैं। तीनों में एक और वैचारिक अंतर है, जैसे-कि न्याय-दर्शन जहाँ वितण्डा, जाति व निग्रह - स्थान - जैसे अनुचित हथकंडों को वाद में इस्तेमाल करके जीत लेना न्याय-संगत मानता है, वहीं जैन नैयायिक केवल सहेतुओं के आधार पर ही अपने पक्ष की सिद्धि करने पर बल देते हैं और ऐसी सिद्धि को ही वे सच्ची विजय मानते हैं। जैनों का न्याय जहाँ अनेकान्त व स्याद्वाद तथा अहिंसा और सत्य को सम्मुख रखकर चला है, वहीं न्याय - शास्त्रीय न्याय केवल वेद-वचन को सम्मुख रखकर आगे बढ़ा है। जैन-न्याय-विद्या की अपनी एक बृहत् परम्परा है। यद्यपि जैन - न्याय के बीज भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य के साहित्य व आचार्य उमास्वामि के तत्त्वार्थसूत्र से ही मिलते हैं, फिर भी इस परंपरा के वाहकों में आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन के बाद में आचार्य अकलंकदेव वे अग्रगण्य स्तम्भ हैं, जिन्होंने जैन - न्याय की परम्परा को पोषित ही नहीं किया, बल्कि एक प्रकार से स्थापित भी किया है। इसी परंपरा की अगली पीढ़ी के ध्वज वाहक आचार्य प्रभाचन्द्र हुए हैं, जिन्होंने आचार्य अकलंकदेवकृत "लघीयस्त्रय' की "न्यायकुमुदचन्द्र' - जैसी महनीय टीका और आचार्य माणिक्यनन्दि के " परीक्षा - मुख- सूत्र' नामक ग्रन्थ पर 12000 श्लोक - परिमाण वाली "प्रमेय-कमल-मार्तण्ड' - जैसी अद्भुत टीका लिखी । उपाध्याय ज्ञानसागर जी इन दोनों ग्रंथों के बारे में लिखते हैं कि- "प्रभाचन्द्र द्वारा लिखित ये दोनों ग्रंथ टीका- ग्रंथ अवश्य हैं, किन्तु विषय की विविधता और मौलिक चिन्तन के कारण अपने-आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित हैं ।" इसी परंपरा में आचार्य समन्तभद्र की आप्त-मीमांसा और उस पर आचार्य अकलंकदेव की लिखी अष्टशती तथा आचार्य विद्यानन्द की अष्टसहस्री भी महत्त्वपूर्ण है, आचार्य समन्तभद्र का स्वयम्भूस्तोत्र भी जैन- न्याय की परंपरा का ध्वज-मेरु-दण्ड है।
xxvi /
अकलंक के नाम से अष्टशती तथा तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य - रचनाओं के रूप में तथा लघीयस्त्रय, न्याय-विनिश्चय, सिद्धि-विनिश्चय एवं प्रमाण-संग्रह स्वतंत्र रचनाओं