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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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कहते हैं और न्याय-सूत्र-कार के दर्शन के अनुसार यह चार प्रकार का होता हैअ. प्रत्यक्ष, ब. अनुमान, स. उपमान, द. शब्द; 2. प्रमाण द्वारा जिन पदार्थों का ज्ञान होता है, वे प्रमेय हैं; 3. स्थाणु में पुरुष की भाँति का संशय होता है; 4. जिससे प्रेरित होकर लोग कार्य करते हैं, वे प्रयोजन हैं; 5. जिस बिन्दु पर पक्ष व विपक्ष एक-मत हों, उसे दृष्टांत कहते हैं; 6. प्रमाण द्वारा किसी बात को स्वीकार कर लेना सिद्धान्त है; 7. अनुमान की प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाले वाक्य अवयव हैं; 9. प्रमाण का सहायक तर्क होता है; 9. पक्ष व विपक्ष दोनों का विचार जिस बिन्दु पर स्थिर हो जाए, वह निर्णय कहलाता है; 10. तत्त्व-जिज्ञासा से किया गया विचार-विमर्श वाद है; 11. स्व-पक्ष का साधन और पर-पक्ष का खण्डन जल्प है; 12. अपना कोई भी मत/पक्ष स्थापित न करते हुए पर-पक्ष का केवल खण्डन वितण्डा है; 13. जो हेतु न हो, हेतु-जैसा हो, ऐसे असत्-हेतु को हेत्वाभास कहते हैं; 14. वक्ता के अभिप्राय को पलटकर प्रकट करना छल है; 15. मिथ्या उत्तर देना जाति है; तथा 16. वादी तथा प्रतिवादी के पक्ष का स्पष्ट न होना निग्रह-स्थान है। नैयायिक कारण में कार्य की सत्ता नहीं स्वीकारते, अतः असत्कार्यवादी हैं।
न्यायसूत्रकार गौतम और जैन नैयायिक दोनों एक बिन्दु पर एक-मत हैं कि ज्ञान से मोक्ष होता है, पर दोनों में भिन्नता यह है कि न्यायसूत्रकार उपर्युक्त 16 पदार्थों के ज्ञान से मोक्ष मानते हैं, वहीं जैन नैयायिक केवलज्ञान से, बल्कि केवलज्ञान को भी वे एक-प्रकार का आंशिक मोक्ष मानते हैं, क्योंकि केवलज्ञान की अवस्था में भी घातिया कर्म नश गए होते हैं। न्यायसूत्रानुगामी ईश्वर की सत्ता सृष्टिकर्ता के रूप में मानते हैं, जबकि जैन नैयायिक परमात्मा को तो मानते हैं, पर वे परमात्मा को सृष्टि का कर्ता नहीं मानते।
न्यायसूत्रकार "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं" प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा को न्याय कहते हैं अर्थात् वे न्याय के साधन के रूप में केवल प्रमाण को मानते हैं, पर जैन विचारक तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित "प्रमाणनयैरधिगमः" का अनुकरण करते हुए "प्रमाणनयात्मको न्यायः" इसप्रकार न्यायदीपिका में न्याय को प्रमाण और नय रूप मानते हैं, दोनों में अर्थात् न्यायसूत्रकार के न्याय व जैन नैयायिकों के न्याय में एक सूक्ष्म अंतर यह है कि जैन नैयायिक जहाँ न्याय को प्रमाण व नय रूप मानते हैं, वहीं न्यायसूत्रकार गौतम प्रमाण को न्याय का साधन मानते हैं, इसीलिए उन्होंने अपने न्याय-रूप में प्रमाण शब्द का प्रयोग तृतीया विभक्ति के बहुवचन में किया है। कुल मिलाकर दोनों में साम्य इस बिंदु पर है कि दोनों प्रमाण को नकारते नहीं हैं, बल्कि