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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
कारण अपने दर्शन को वैशेषिक दर्शन के नाम से प्रख्यापित करने की ओर संकेत देते हैं। कुछेक बिन्दुओं को छोड़कर प्रायः अधिकांश बिन्दुओं पर न्याय और वैशैषिक दर्शनों में समानता है। इसलिए इन दोनों दर्शनों का एक संयुक्त नाम 'योग' भी हमारी परम्परा में उल्लिखित है। 'योग' के नाम से जो-कुछ कहा गया, वह-सब न्याय और वैशेषिक दर्शनों में उल्लिखित है। नैयायिक और वैशेषिक दोनों दर्शनानुयायियों ने सन्निकर्ष को प्रमाण माना है। नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान आदि चार प्रमाणों को मानते हैं, जबकि वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान आदि दो को ही प्रमाण मानते हैं। नैयायिक और वैशेषिक दोनों इस बात पर एक-मत हैं कि प्रमाण अस्वसंवेदी होता है। भाव यह है कि ज्ञान स्वयं अपना प्रत्यक्ष नहीं करता, बल्कि दूसरे ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष होता है। दोनों ने ही अर्थ और आलोक को ही ज्ञान का कारण माना है। गृहीत-ग्राही धारावाहिक-ज्ञान को दोनों प्रमाण मानते हैं तथा आत्मा को शरीर के परिमाण वाला न मानकर व्यापक मानते है। दोनों ईश्वर की सत्ता स्वीकार करके उससे ही संसार की सृष्टि का करने वाला मानते हैं। दोनों ही धर्म एवं धर्मी (अवयवी) का भेद स्वीकार करते हुए धर्मों से पृथक् धर्मी की सत्ता मानते हैं, दोनों असत्-कार्य-वादी हैं, अर्थात् दोनों उत्पत्ति से पूर्व कारणों में कार्य की सत्ता नहीं स्वीकारते। दोनों समवायी, असमवायी तथा निमित्त -इन तीन प्रकार के कारणों को मानते हैं और अ-युत्-सिद्ध की कल्पना करते हैं। शरीर आदि से निमित्त आत्मा की सिद्धि करते हुए आत्मा को परम महत् परिणाम वाला नित्य तथा प्रति-शरीर में भिन्न-भिन्न (नाना) रूप में उपस्थित मानते हैं। दोनों ही यह स्वीकारते हैं कि आत्मा के जन्म आदि का कारण धर्म-अधर्म (अदृष्ट) है। आत्मा के अदृष्ट का नियन्ता सृष्टि व प्रलय का कर्ता ईश्वर है, दोनों के मत में बंध और मोक्ष दोनों शाश्वत सत्य हैं अर्थात् यथार्थ हैं तथा पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मुक्ति होती है।
न्यायसूत्रकार गौतम कणाद, जिन्हें अक्षपाद भी कहा जाता था, वे कहते हैं कि 1. प्रमाण, 2. प्रमेय, 3. संशय, 4. प्रयोजन, 5. दृष्टान्त, 6. सिद्धांत, 7. अवयव, 8. तर्क, 9. निर्णय, 10. वाद, 11. जल्प, 12. वितण्डा, 13. हेत्वाभास, 14. छल, 15. जाति, 16. निग्रह-स्थान आदि 16 पदार्थों के ज्ञान से मोक्ष होता है। यथा____ "प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टांतसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासवच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः ।" -न्यायसूत्र, 1, 1
षड्दर्शनसमुच्चयकार श्री हरिभद्र सूरि इन 16 पदार्थों को इसप्रकार व्याख्यायित करते हैं- 1. मन और इन्द्रिय के द्वारा होने वाले वस्तु के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण