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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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कि न्याय-भाष्यकार ने प्रमाणों के द्वारा वस्तु की परीक्षा करने को न्याय कहा। भाष्य में आगे भी उल्लेख मिलता है कि "प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं सान्वीक्षा प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा। तया प्रवर्तते इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम्" -न्यायभाष्य, 1.1.1 | प्रत्यक्ष और आगम के आश्रित अनुमान को अन्वीक्षा कहने की हमारी परम्परा रही है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष व आगम के आधार पर ही प्रवृत्त होता है, उसी को न्यायभाष्यकार ने आन्वीक्षिकी या न्याय-विद्या या न्याय-शास्त्र कहा है। वस्तुतः आन्वीक्षिकी का प्रयोग आत्म-विद्या अथवा आत्मा के स्वरूप के अनुसार उसे देखने की विद्या के अर्थ में प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ होता रहा है, उसे मनुस्मृति में भी मनु के द्वारा आत्म-विद्या कहा गया। चूँकि आत्मा भौतिक वस्तु नहीं है, अतः सीधे प्रत्यक्ष का विषय नहीं बन सकती और परोक्ष के ढूँढने में अनुमान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए इस न्याय-विद्या को आन्वीक्षिका के साथ अनुमान-विद्या भी कहा गया है। प्रमाण वे आधार हैं, जिनके आधार पर परोक्ष को ढूँढा जा सकता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों को ढूंढने का प्रामाणिक कार्य जहाँ होता है, इसीलिए वहाँ न्याय-विद्या का एक नाम प्रमाण-शास्त्र या प्रमाण-विद्या भी है। इसके अतिरिक्त हमारे यहाँ न्याय-विद्या के कुछ ग्रंथ तर्कसंग्रह, तर्क भाषा, तार्किक रक्षा, तर्ककौमुदी, तर्कामृत आदि नामों से भी प्रसिद्ध हुए हैं, जिससे भी इस बात की ओर संकेत मिलते हैं कि हमारे यहाँ न्याय-विद्या को तर्क-विद्या या तर्क-शास्त्र मानने की परम्परा रही है। तर्क शब्द भी चुरादि गण की उभयपदी 'त' धातु से 'अच' प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है, जिसका पारम्परिक अर्थ- कल्पना करना, अटकल करना या अटकल लगाना, अंदाज लगाना, अनुमान करना, विमर्श करना आदि कहा गया है, जिससे भी इस बात की ओर संकेत मिलते हैं कि हमारे यहाँ न्याय-विद्या को तर्क-विद्या या तर्क-शास्त्र मानने की परम्परा रही है। जो आचार्य न्याय-शास्त्र को तर्क-विद्या मानते थे, वे भी इसके प्रमुख आधार के रूप में अनुमान-प्रमाण को ही लेते रहे हैं। कुछ आचार्यों के मत में इसका एक नाम वाद-विद्या या वाद-शास्त्र भी रहा है, यह नाम भी भारतीय वाचिक परम्परा में वाद या यूँ कहें कि शास्त्रार्थ के दौरान प्रयोग किए जाने वाले तर्काधारों का विवेचन करने वाले शास्त्र की ओर संकेत करता है, इसके अनुसार वाद में प्रयुक्त हेतु, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह-स्थान आदि का वर्णन इसमें प्रमुख रूप से है। न्याय-दर्शन के मानने वाले नैयायिक जहाँ प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति व निग्रह-स्थान इत्यादि 16 पदार्थों को मानते हैं, वहीं वैशेषिक दर्शन के सूत्रकार महर्षि कणाद 'विशेष' नामक पदार्थ की विशिष्ट कल्पना करने के