________________
परिशिष्ट-2
स्वरूप- संबोधन-परिशीलन
ट
टंकोत्कीर्ण - वास्तव में क्षायिक (केवल) ज्ञान अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार टंकोत्कीर्ण न्याय से स्थित होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है । ( वस्तुतः क्षायिक (केवल) ज्ञान अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार को नित्य रूप से जानता है, अतः वह वस्तुओं के ज्ञेयाकार को नित्य रूप से जानना ही टंकोत्कीर्ण रूप है। – संपादक) - जै. सि. को., भा. 2, पृ. 351
त
तत्त्व- जिस वस्तु का जो भाव है, वही तत्त्व है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है, उसका उस रूप होना, यही तत्त्व शब्द का अर्थ है । तत्त्व सात हैं- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष |
- जै. द. पा. को., पृ. 110 तत्त्वार्थ-सूत्र- आचार्य उमास्वामी (ई. 179-220) कृत मोक्ष-मार्ग, तत्त्वार्थ व दर्शन विषयक 10 अध्यायों में सूत्र - बद्ध ग्रन्थ । कुल सूत्र 357 हैं। इसको को मोक्ष - शास्त्र भी कहते हैं । दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों में समान रूप से मान्य है । जैन आम्नाय में यह सर्व-प्रधान सिद्धान्त-ग्रन्थ माना जाता है । इस ग्रन्थ की अनेक आचार्यों ने टीकाएँ की हैं।
- जै.सि. को., भा. 2, पृ. 355 तत्त्वार्थ-वार्तिक— तत्त्वार्थ सूत्र पर आचार्य अकलंक भट्ट (ई. 620 - 680) द्वारा विरचित
/239
टीका इसे तत्त्वार्थ- राजवार्तिक भी कहते हैं । - जै. सि. को., भा. 2, पृ. 355 तिलोय-पण्णत्ति- आचार्य यतिवृषभ (ई. 520-609) द्वारा रचित लोक के स्वरूप का प्रतिपादक प्राकृत गाथा - बद्ध ग्रन्थ है । इसमें 9 अधिकार और लगभग 3800 गाथाएँ हैं।
- जै. सि. को. भा. 2, पृ. 370 तीर्थंकर - जिसके आश्रय से भव्य जीव संसार से पार उतरते हैं, वह तीर्थ कहलाता है । तीर्थ का अर्थ धर्म भी है। इसलिए तीर्थ या धर्म का प्रवर्तन करने वाले महापुरुष को तीर्थंकर कहते हैं। आत्मा में तीर्थकर बनने के संस्कार मनुष्य-भव में किन्हीं केवली भगवान् या श्रुत- केवली महाराज के चरणों
बैठकर दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं के चिन्तवन से प्राप्त होते हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्र में चौबीस - चौबीस तीर्थंकर होते हैं। विदेह क्षेत्र में सदा बीस तीर्थकर विद्यमान रहते हैं ।
- जै.द. पा.को., पृ. 112
द
दर्शनावरणीय-कर्म- आत्मा के दर्शन - गुण को जो आवरित करता है, वह दर्शनावरणीय है अर्थात् जो पुद्गल - स्कन्ध मिथ्यात्व, असंमय, कषाय और योगों के द्वारा कर्म-रूप से परिणत होकर जीव के साथ सम्बद्ध होता है और दर्शन - गुण को ढाकता है, वह दर्शनावरणीय है। दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियाँ हैंनिद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यान - गृद्धि,