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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 25
अहो प्रज्ञ! जिन-दीक्षा-धारा के काल को प्रति-क्षण निज स्मृति में रखकर चलो, क्या भावों की विशुद्धि थी, अद्वैत पर लक्ष्य था, न संघ-भेद था, न पंथ-भेद था, भेद था यदि कहीं, तो वह मात्र देह और आत्मा को भिन्न-मानने के विचार में था। भेद-विज्ञानी भव्य मुमुक्षु चैतन्य-भगवानों में भेद नहीं करता, भेद शरीर और आत्मा में करता है, जगत् से निज आत्मा को भिन्न देखता है, न राग से, न द्वेष से; एकमात्र तटस्थ भाव से देखता है, स्व-चतुष्टय को पर-चतुष्टय से भिन्न तो जानना ही होगा, पर-भाव निज के लिए द्वैत भाव है तथा स्व-भाव निज के लिए अद्वैत-रूप है। कठिन साधना द्वैत नहीं है, कठिन साधना अद्वैत है। एकीमुख होकर स्व-स्थ-चित्त रखना, पर-भाव में आत्म-स्वभाव को नहीं जाने देना, जैसे- गज को अंकुश का भय हिलने नहीं देता, उसीप्रकार मुनिराज को कर्माकुश का भय पर-भवों में हिलने नहीं देता। अहो योगीश्वरो! अद्वैत-साधना ही श्रेय-मार्ग है। यहाँ अद्वैत-प्रयोजन अद्वैत-एकान्त की सिद्धि नहीं समझना, न अन्य का अभाव, शून्य-अद्वैत से भिन्न-अद्वैत की बात कह रहा हूँ। जगत् के अनन्त पदार्थों की सत्ता में एकमात्र लक्ष्य निज आत्म-पदार्थ को रखना, जैसे- स्व-मुख ग्रास का स्वाद एकीभूत होकर लेता है, पर के ग्रास का ज्ञाता-दृष्टा रहता है, अनुभव-कर्त्ता नहीं होता, उसीप्रकार जगत् के अन्य पदार्थों के ज्ञाता-दृष्टा तो रहना, परंतु उनके कर्ता-भोक्ता मत होना, एकमात्र स्व-द्रव्य का भाव रखना, पर-विकल्पों से शून्य हो जाना अद्वैत-भाव है, यह अद्वैत-आराधना ही निश्चय-चारित्र है, यही निश्चय-ज्ञान है, इसे पूज्यवर ग्रंथकर्ता ने अभेद षट्-कारकों में व्यक्त किया है। भेद-अभेद रूप षट्-कारक ही तो द्वैत-अद्वैत का कथन है, इसे भी समझना चाहिए, तत्त्व की गहराइयाँ ही तो जीव को महान् से भगवान् बना देती हैं। सर्व-प्रथम महान् बनो, यानी कष्ट-उपसर्ग को सहना सीखो; तब महान् होओगे, और तब-फिर भगवान् बनोगे। मनीषियो! भेदाभेद-कारक को समझना अनिवार्य है, लोक की सम्पूर्ण व्यवस्था षट्-कारक पर आलम्बित है। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण ये षट्-कारक हैं। व्याकरण-शास्त्र/शब्द-शास्त्र में आठ कारक भी कहे जाते हैं, सम्बन्ध एवं सम्बोधन ये दो और हैं, ये दोनों कारक पर-सापेक्षी हैं, राग-रूप हैं, अध्यात्म-शास्त्र में राग की गौणता से ही कथन किया जाता है, पर सम्बोधन से शून्यता ही आत्मा का ध्रुव स्वभाव है। वह त्रैकालिक है, न उत्पन्न हुआ, न होगा, न था, क्या यह कह सकते हैं कि कर्म का सम्बन्ध तो है?... लेकिन ध्यान रखना- संयोग भाव-मात्र है, अविनाभाव संबंध नहीं है, उपादान-भावकर्म आत्मा का