________________
श्लो. : 25
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
1213
है, जड़-स्वभावी कर्म कभी भी जड़ को छोड़कर आत्म-पने को प्राप्त नहीं हुआ, चैतन्य-स्वभावी आत्मा ने अपने ज्ञायक-भाव का अपादान नहीं किया तथा जड़त्व-भाव को कभी स्वीकार नहीं किया। लोक में छ: द्रव्यों का समह त्रैकालिक विद्यमान है. परस्पर एक-दूसरे के साथ एक ही लोकाकाश में रहते हैं, परन्तु अपने स्वभाव का कभी भी अपादान (त्याग) नहीं करते तथा पर-द्रव्य के स्वभाव को कभी ग्रहण भी नहीं करते, यह व्यवस्था अन्य-कृत नहीं है, यह व्यवस्था द्रव्यों की स्वभाव-जन्य है, प्रत्येक द्रव्य निज स्वभाव का कर्ता है, निज को परिणमन कराता है, यही उसका कर्म है, पर के द्वारा परिणत नहीं कराया जाता, स्वयं के द्वारा ही परिणमाया जाता है, यही कारण है, पर के लिए नहीं परिणमाया जाता, निज-भाव को परिणत करता है, द्रव्य का यही अपादान है, पर-चतुष्टय में ठहरकर परिणमन नहीं करता, स्व-चतुष्टय में ही द्रव्य अधिष्ठित रहता है, यही अधिकरण कारक है। अभेद कारकों को समझे बिना वस्तु की त्रैकालिक व्यवस्था को नहीं समझा जा सकता, तत्त्व के सत्यार्थ-ज्ञाता वे ही जीव हैं, जो भेदाभेद कारकों को जानते हैं, उनका मोह विलय को प्राप्त होता है। भेद-कारक पर-सापेक्षी होते हैं, यदि भेद-कारक को नहीं स्वीकार करोगे, तो लोक-व्यवहार व व्यवहार-धर्म दोनों की व्यवस्था घटित नहीं होगी। अभेद-कारक उपादान-प्रधान है, भेद-कारक निमित्त-प्रधान है। उभय-कारक कार्य-सिद्धि के कारण हैं, -ऐसा तत्त्व-उपदेश समझना चाहिए, लोक में प्रथम कारक ही विसंवाद है, पर को स्वयं का कर्त्ता बनाने की दीर्घ परंपरा व्याप्त है, क्या करें! मिथ्यात्व का साम्राज्य सर्वत्र दिखायी देता है, बड़े-बड़े बुद्धिमान पुरुष निज-बुद्धि से पराधीनता स्वीकार कर यह मानते हुए प्रसन्न हो रहे हैं कि ईश्वर कर्ता है। वस्तुतः जो भी सुख-दुःख की प्राप्ति होती है, वह स्वयं के सातावेदनीय या असातावेदनीय कर्म से होती है, ईश्वर किसी को सुखी-दुःखी करने नहीं आता, इसलिए ज्ञानी! कर्त्तापन के गृहीत-अगृहीत मिथ्यात्व का त्याग करो, अन्यथा मिथ्यात्व से आत्मा की रक्षा होने वाली नहीं है। __जो क्रिया का कर्ता है, वही तो कर्ता होता है, तो आप स्वयं विचार करो- जो प्रति-दिन के क्रिया-कलाप आपके स्वयं के हैं, वे आप स्वयं करते हैं या अन्य कोई करने आता है?... अज्ञ स्व के विचारों में ही भ्रमित हैं, अहो आश्चर्य! विचार तो अब्रह्म-रूप भी होते हैं, हिंसा-जन्य विचार-आचार दोनों चांडाल के चल रहे हैं, तो क्या वे विचार भी ईश्वर ने उत्पन्न कराये हैं। अहो! वह ईश्वर कितना पाप का संचय करेगा, जो-कि अनन्त जीवों के अंदर हिंसा, अब्रह्मादि-भावों का करने वाला है, फिर उन कर्मों का अशुभ विपाक आएगा, उसे भी क्या ईश्वर भोगेगा?..... जगत् के