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श्लो. : 25
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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कठिन मार्ग है, इस पर ठहरना दुर्लभ है, इसलिए वहाँ से च्युत हुआ जीव भवनों का आलम्बन लेकर समय को पूर्ण कर रहा है, समय (आत्मा) से दूर होकर स्व-समय में प्रवेश हो जाए, तो क्यों कोई जीव भवनों का त्याग करके भवन-निर्माण में निराकुल-मार्ग जिन-दीक्षा का व्यय करेगा?... साधको! धन्य है कि त्रिलोक-पूज्य अरहन्त-मुद्रा को आप कैसे भिखारी/ठेकेदारी की मुद्रा में देखते हो?.... इतना साहस कैसे प्राप्त किया?... पूर्वाचार्यों ने तो इस मुद्रा का प्रयोग मात्र स्वानुभूति में किया था, -ऐसा लगता है कि वर्तमान-युग विपर्यास-युग ही है, गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य-परीक्षण के लिए सोनोग्राफी यंत्र का प्रयोग था, परन्तु अल्पज्ञ अर्थ-लोलुपी, विषय-लोलुपी, हिंसक जीवों ने लिंग-परीक्षण में प्रयोग कर अनेक भावी भगवान्-आत्माओं के साथ क्रूर व्यवहार करके हिंसक कर्म कर तीव्र पाप का संचय किया है, उसीप्रकार जिन-मुद्रा निर्वाण-श्री की प्राप्ति के लिए थी, परन्तु प्रज्ञा-विहीन जीवों ने इस पावन-पवित्र-मुद्रा का प्रयोग भवनों के निर्माण में लगाकर इसे अपमानित किया है व तत्त्व-ज्ञान के साथ अनाचार हुआ है। लौकिक कार्य तो जीव ने अनादि काल से किये हैं, उनसे मुक्त होने के लिए ही साधक संयम की आराधना करता है, आराधना-काल में विराधना से आत्म-रक्षा प्रयत्नपूर्वक करता है। ____अहो ज्ञानियो! मोक्ष-मार्ग अत्यन्त विशुद्ध मार्ग है, आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने सराग-अवस्था में जिन-पूजा आदि का उपदेश देने को तो कहा है, जिन-भवन की रक्षा करो, वृद्धि करो, यहाँ तो आचार्यों की आज्ञा है, परन्तु अन्य भवनों के लिए उपदेश भी संयमाचारण में मलिनता का जनक है, जिन-मुद्रा के प्रभाव का प्रयोग सम्यग्रूपेण करना, इसे भौतिक द्रव्यों की प्राप्ति में नहीं कर लेना। अभेद-मार्ग की ओर ले जाने वाली मुद्रा है, भेद-भावना भाते-भाते तो अनन्त काल व्यतीत हो गया, परन्तु अभेद-भावना के अभाव में निर्वाण-श्री का मिलन नहीं हुआ, द्वैत-भाव प्रारंभ अवस्था में तो उपादेय है, परन्तु परम उपादेय-भूत अद्वैत-भाव पर भी दृष्टि जाना चाहिए, द्वैत से ही जीव संतुष्ट हो गए, -ऐसा लगता है। संयम-साधना के काल में साधक को एक निश्चित समय के बाद बाह्य-प्रभावना से भी दृष्टि हटाकर अन्तरंग-प्रभावना में लगाना चाहिए, अद्वैत-भाव अन्तरंग-प्रभावना है, बहिरंग-प्रभावना में भी जिन-धर्म एवं आत्म-धर्म का लक्ष्य है, तो ही प्रभावना संज्ञा है, पर्याय का राग कहीं है, तो ज्ञानी स्व-तन का प्रचार है, न-कि चैतन्य का कल्याण, न जन्म-जयंती स्वयं मोक्ष-मार्ग है, न चित्रों की छपायी मोक्ष-मार्ग है, मोक्ष-मार्ग तो एक-मात्र विशुद्ध रत्नत्रय की साधना है।