________________
2107
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 25
नहीं है, –यही तो उन्मत्त पागल-पुरुष की पहचान है, उसीप्रकार जिस वक्ता ने निश्चय-नय एवं व्यवहार-नय में से एक नय को कहना ही ध्येय बना लिया, प्रयोजन क्या है ऐसे कथन का? ...निश्चय मानिए कि वह परमार्थ से ही सम्बन्ध समाप्त कर बैठा है।
ज्ञानियो! नय का कथन मोक्ष-मार्ग नहीं है, मोक्ष-मार्ग में विसंवाद न हो, सत्यार्थ-तत्त्व को समझने के लिए नय का आलम्बन लेना चाहिए। मोक्ष-मार्ग तो रत्नत्रय-धर्म का भेदाभेद-साधन है, साम्य-भाव की साधना ही श्रेष्ठ साधना है, जिन-लिंग धारण करने के उपरान्त भी साम्य-भाव की प्राप्ति यदि साधक नहीं कर सकता, तो समझना चाहिए कि अभी साधना प्रारंभ ही नहीं हुई, साधक पुरुष की चर्या, उसकी क्रिया एवं परिणति सभी विशिष्टता से युक्त होती है, वाणी में साम्यता, मन में साम्यता, यहाँ-तक-कि सम्यक् साधक का तन भी साम्यता-भरा होता है, शरीर को देखने-मात्र से भावों की साम्यता का बोध हो जाता है, जैसे-कि जल से भरा मटका दूर से दिखता है कि कलश पानी से पूरित है, उसीप्रकार देह के दर्शन से भी जीव के भावों का अनुमान लग जाता है, उपवास, मौन, काय-क्लेश की साधना में न्यूनता भी हो, तो कोई विकल्प नहीं है, पर साम्य-भाव की साधना में कमी नहीं आना चाहिए, सम्पूर्ण समाधि की साधना साम्य-भाव है। साम्य-भाव, समाधि, मध्यस्थता, उदासीनता, उपेक्षा-भाव से साम्य-भाव के अनेक नाम समझो। आचार्य-देव भट्ट अकलंक स्वामी इस कारिका में उसी साम्य-भाव को लक्ष्य कर भव्य मुमुक्षुओं को समझा रहे हैं कि ध्रुव ज्ञायक-भाव के परमानन्द का अनुभव करना चाहते हो, तो पर के कर्त्तापन से आत्म-रक्षा करो और साम्य-भाव को अपना मुख्य लक्ष्य बनाओ, भिन्न कारक का कथन/अनुभवन इस जीव ने सुना है, किया है, परन्तु अभिन्न कारक के बारे में विचार ही नहीं किया, –यही कारण है कि ज्ञान की धारा बाह्य ज्ञेयों में दौड़ रही है, ज्ञाता के ज्ञेय-भाव को कोई लक्ष्य ही नहीं दिखता, जहाँ साधक स्वयं डूबे रहते थे, पर से जिन्हें कोई प्रयोजन होता था, वहीं सम्प्रति कुछ भिन्नत्व दिखता है, पर में डूबे निज में उथले नेता, अभिनेता, श्री, स्त्री के परिचय में समय निकल रहा है, ज्ञानी स्वयं चिन्तवन करो- क्या भवनों का निर्माण आत्म-निर्वाण का मार्ग है? जो भवन के त्यागी हैं, वे भवन-निर्माण में अपनी निर्वाण-दीक्षा के काल को पूर्ण करें, पर-कर्ता-पन की इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी?... रागी-भोगी जिसका उपयोग करें, उन्हें वीतराग-मुद्रा-धारी बनवाएँ, यह कलिकाल की बलिहारी कहें या मान का पुष्टि-करण कहें, या-फिर मोक्ष तत्त्व पर श्रद्धा की कमी, या यों-कहें-कि मोक्ष-मार्ग