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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 24
भिन्न द्रव्य का परिणमन जीव के स्व-द्रव्य का न करण है, न कर्ता, लोक में वस्तु-परिणमन स्वतंत्र है, अवस्तु में परिणमन का अभाव है, जब वस्तु ही नहीं, तो परिणाम या परिणमन किसमें?... किसका?.... अहो ज्ञानी! तत्त्व-बोध तो तत्त्व-ज्ञ होकर प्राप्त करो, विमोह में निज ध्रुव भगवती आत्मा को कब-तक फँसाकर रखोगे, निज स्वतंत्रता का क्या लक्ष्य ही नहीं है, स्व-पर का ज्ञान करो, पर-वस्तु के ज्ञान का अर्थ पर-लिप्त हो जाना नहीं, निज को भूल जाना नहीं। अहो प्रज्ञ! जब कोई जीव यात्रा को जाता है, तो मार्ग में अनेक सुंदर भवनों को देखता है, सुंदर व असुंदर चित्रों का भी अवलोकन करता है, परन्तु स्वयं के निवास-स्थान को तो नहीं भूलता, भ्रमण कहीं भी करे, पर लौटकर निज के निवास पर ही आता है, सम्मेदशिखर जी, श्रेयांसगिरि, गोम्मटेश्वर जी की वंदना को गया, परंतु भगवान् के द्वारे से लौटकर विषयागार में आ गया। अहो हंसात्मन्! उसीप्रकार जगत् के मध्य में घूमते हुए अपने निज ध्रुव आत्म-तत्त्व को नहीं भूल जाना, स्व-पर-ज्ञाता बनो, परन्तु उनमें अर्थात् पर-वस्तुओं में अति-आसक्ति को प्राप्त मत हो जाना, उनके प्रति आसक्ति-मात्र दीर्घ संसार का साधन है, स्वभाव में लीन रहना सीखो, पर-भाव से राग का अभाव करो, पर में निज-परणति को ले जाना बंद करो, पर में निज-परणति का जाना ही मोह का जागृत करना है, जैसे- बीन की आवाज से नाग जाग्रत हो जाता है, उसीप्रकार मनोज्ञ-अमनोज्ञ पाँच इन्द्रियों के विषयों में परिणति हो जाती है। शीघ्र मोह-नाग को जागृति देना है, वही नाग इस आत्मा की शुद्ध एवं शुभ दशा का घात कर रहा है, यथाख्यात-चारित्र से वंचित कर रहा है, पंचम-गति का हेतु पंचम-चारित्र ही है और मोह पंचम-चारित्र से आत्मा को दूर किए है, अज्ञानी जीव को पाँच पापों में लिप्त किए है। __मोहाविष्ट अज्ञ पुरुष स्व-पर के भेद-विज्ञान से शून्य हैं, पर में स्व-बुद्धि किये हैं, स्त्री-पुरुष, धन-धान्य, भवन, यान आदि वस्तुओं की लालसा में पर्याय को पूर्ण कर रहा है, स्व-चतुष्टय में प्रत्येक जीव-द्रव्य अभिन्न है, पर-चतुष्टय में प्रत्येक द्रव्य भिन्न है, अतः द्रव्य भिन्न-भिन्न-स्वभावी है। जिसप्रकार का वस्तु का स्वभाव है, उसीप्रकार स्वीकार करना चाहिए। जब जीव पर-भाव को निज-भाव से भिन्न जान लेता है, तब राग भी सहज मंद हो जाता है, राग की तीव्रता भी तभी-तक रहती है, जब-तक पर-पदार्थ को निज से पृथक नहीं समझता, ध्रुव-ज्ञाता पर-ज्ञेयों को निज से भिन्न ही समझता है, संयोगों में स्व-भाव-मान्यता को कभी भी नहीं लाता, अहो! विकारों की अशुभ दशा को धिक्कार हो, जो निज भगवान्-आत्मा को कितने खोटे स्थानों पर