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श्लो. : 24
अबद्ध, स्पष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे भाव-रूप आत्मा की जो अनुभूति है, वही निश्चय से समस्त जिन - शासन की अनुभूति है, क्योंकि श्रुत - ज्ञान स्वयं आत्मा ही है, इसलिए जो यह ज्ञान की अनुभूति है, वही आत्मा की अनुभूति है । स्वयमात्मत्वान्ततोज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः ।
श्रुतज्ञानस्य
- आत्मख्याति टीका 15/40
यहाँ पर विशेषता यह है कि सामान्य ज्ञान के तो प्रकट होने से और विशेष - ज्ञेयाकार ज्ञान के आच्छादित होने से ज्ञान - मात्र ही जब अनुभव किया जाय, तब प्रकट- ज्ञान अनुभव में आता है, तो भी तो जो अज्ञानी हैं, वे ज्ञेयों (पदार्थों) में आसक्त हैं। जैसेअनेक तरह के शाक आदि भोजनों के सम्बन्ध में उत्पन्न सामान्य लवण का तिरोभाव (अप्रकटता) तथा विशेष लवण आविर्भाव (प्रकटता), उससे अनुभव में आने वाला जो सामान्य लवण का तिरोभाव-रूप लवण तथा लवण का विशेष भाव-रूप व्यञ्जनों का ही स्वाद अज्ञानी और व्यज्जनों के लोभी मनुष्यों को आता है, परन्तु अन्य के असंयोग से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव तथा विशेष के तिरोभाव से एकाकार व अभेद-रूप लवण का स्वाद नहीं आता । और जब परमार्थ से देखा, तब तो विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आया क्षार - रस - रूप लवण है, वही सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आया हुआ क्षार - रस रूप लवण है । उसीतरह अनेकाकार ज्ञेयों के आकारों की मिश्रता से जिसमें सामान्य का तिरोभाव और विशेष का आविर्भाव ऐसे भाव से अनुभव में आया जो ज्ञान है, वह अज्ञानियों और ज्ञेयों में आसक्तों को विशेष भावरूप, भेद-रूप व अनेकाकार रूप स्वाद में आता है, परन्तु अन्य ज्ञेयाकार के संयोग से रहित सामान्य का आविर्भाव और विशेष का तिरोभाव - ऐसा एकाकार अभेद-रूप ज्ञान-भाव अनुभव से आता हुआ भी स्वाद में नहीं आता और परमार्थ से विचारा जाय, तब भी जो विशेष के आविर्भाव से ज्ञान अनुभव में आता है, वही सामान्य के आविर्भाव से ज्ञानियों के और ज्ञेय में अनासक्तों के अनुभव में आता है। जैसे- लवण की कंकड़ी अन्य द्रव्यों के संयोग के अभाव से केवल लवण मात्र अनुभव किये जाने पर एक लवण-रस सर्वतः क्षार रूप से स्वाद में आता है, उसीप्रकार आत्मा भी पर - द्रव्य के संयोग से भिन्न केवल एक भाव से अनुभव करने पर सब तरफ से एक विज्ञान- घन स्वभाव के कारण ज्ञान रूप से स्वाद में आता है। जिस क्षण जीव ज्ञान से ज्ञान का वेदक हो जाएगा, उसी क्षण पर-भाव से भिन्नत्व-भाव को प्राप्त हो जाएगा, पर की परिणति में निज-परिणति को ले जाना, सबसे बड़ी तत्त्व की भूल है। लोक में जितने भी जीव मोह की ज्वाला में दग्ध हैं, वे सब पर - परिणति में लुब्ध हो रहे हैं, जबकि
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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