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श्लो. : 24
रखती है या ले जाती है। जिन स्थानों के नाम लेने में शर्म आती है, वहाँ जाना कितना निन्दनीय होगा!... पर वह उन स्थानों का स्पर्श करा देता है, बिना निज कष्ट के कष्ट दिला देता है, बिना निज शोक के शोक करा देता है । ज्ञानियो! समझते जाना- ध्रुव ज्ञायक-भाव से अपरिचित होने के ही कारण मोह के फन्दे में जीव फँस जाता है, परिवार के किसी व्यक्ति को कष्ट हुआ, तो वह उसके असातावेदनीय कर्म के उदय से हुआ, पर अज्ञानी उसे देखकर ही कष्ट में डूब गया, यहाँ तक तेरा कर्तव्य था कि मानवता के नाते उसका उपचार कर देता, कष्ट के प्रति संवेदनाएँ प्रदान कर देता, पर रोने लग जाना, - यह कौन-से विवेक की बात है, इससे तो व्यर्थ में असाता का आस्रव कर लेता है । जिससे लोक भ्रमण किया है, कर रहे हैं तथा I करेंगे, यह सब मोह की माया है, वह सब मोह के ही उन्माद में किया गया है । अहो मोहनीय कर्मराज! आपने सम्पूर्ण लोक को रथ्या पुरुष ( पागल) बना दिया है, अज्ञ प्राणी वही करते हैं, जो तू कराता है, स्व-पर के सत्यार्थ-बोध से रहित होकर राग-द्वेष को प्राप्त होता है, विवेक - शून्य होकर चेष्टा करता है, पर.... मोही यह नहीं समझता कि जो मैं राग-द्वेष कर रहा हूँ, वह भी स्व-कृत नहीं है, मोह-कर्म से प्रेरित होकर कर रहा हूँ। जो राग-द्वेष है, वह भी विभाव-भाव है, मोह भी विभाव-भाव है, जैसे- यंत्र पुरुष से प्रेरित होकर चलता है, उसीप्रकार अज्ञानी की दशा है, मोह-कर्म से प्रेरित पुरुष यंत्र की भाँति अनेक कार्य कर रहा है, पर अल्पधी यही समझता है कि यह सब आत्मा ही कर रही है। हे भव्यात्मन्! शुद्धात्मा कर्मातीत, अशरीरी व चिद्रूप है, वह न किसी का कर्त्ता है, न कारयिता है, न अनुमोदक है, वह मात्र स्वभाव-धर्म का उपयोक्ता है, लोक की चिन्तवन- हीनता, प्रज्ञा की न्यूनता देखकर अति-आश्चर्य लगता है कि स्पष्ट स्व- पर द्रव्य में भिन्नत्व-भाव दिखता है, कर्म की विचित्रता भी दिखायी दे रही है, आगम ग्रंथों का वाचन भी चल रहा है, फिर भी अन्य की क्रिया को स्व-कृत मानकर उन्मत्त हो रहे हैं; जबकि तत्त्व - ज्ञानियों को स्व-पर का ज्ञान करके राग-द्वेष-बुद्धि का विसर्जन कर देना चाहिए और जगत् - पूज्य बनाने वाली निर्मोही दशा का आलम्बन लेना चाहिए, स्वार्थ-वृत्ति से युक्त संसार में अपनी वंचना नहीं करना चाहिए । जीव पर का ग्रहण जितना नहीं करता, उससे ज्यादा विकल्पों को ग्रहण करता है, किस संबंध को जीव ग्रहण करता है, कोई भी संबंध भोगा जाता है क्या?..... सम्बन्धों में राग-द्वेष-भाव ही हुआ करते हैं, उनके द्वारा पुनः अभिनव कर्मास्रव करता है और उनके विपाक का पुनः भोक्ता होकर राग-द्वेष-रूप भाव-कर्म करके द्रव्य को पुनः प्राप्त होता है, इसप्रकार जीव का संसार-चक्र अनवरत चल रहा
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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