________________
196/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 23
विशुद्धि की वृद्धि सहज-भाषा वाले वक्ता के उपदेशों से होती है, अनार्य को अनार्य की भाषा में ही समझ में आता है, परन्तु आर्यों के सामने भी अनार्य-भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं है, आर्यों के सामने तो आर्य-भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। कुशल वक्ता का यह गुण है कि जो-जैसा श्रोता है, उसे उसी की भाषा में सम्बोधन देता है। भाषा को करण ही बनाएँ, कर्त्ता व कर्म न बनाएँ, भाषा तत्त्व-बोध के लिए साधन है, साध्य नहीं है। अज्ञानी जीव स्व-प्रांतीय भाषा के राग में लाखों जीवों का घात कर कर्म-बन्ध को प्राप्त हो रहे हैं, न साधु को देखते हैं, न असाधु को। साधु-भेष को प्राप्त करके भी, सम्पूर्ण राग के कारण अन्य द्रव्यों से रहित होकर भी जब-तक प्रान्त, देश, राष्ट्र, नगर, जनपद-भाषा का राग भी स्वात्म-तत्त्व की प्राप्ति का साधन नहीं बनता, परम-पद की सिद्धि चाहिए है, तो मुमुक्षुओ! व्यर्थ के अप्रयोजन-भूत-तत्त्वों से अपनी दृष्टि हटाओ, एक भगवती आत्मा पर दृष्टि डालो, आचार्य-देव इसी बात का संकेत कर रहे हैं। तत्त्व-देशना करते हुए भव्यों को परम-वात्सल्य भी प्रदान कर रहे हैं, यह है अन्तरंग-संवेग-भाव, धर्म के मर्म को भव्यों को कैसे प्रदान करना चाहिए?... कभी माँ बनकर, तो कभी जनक बनकर; कभी गुरु बनकर, तो कभी मित्र बनकर। भव्य की जैसी-योग्यता होती है, गुरु उसे उसी भाव से तत्त्व-बोध देते हैं, सभी जीवों का कल्याण हो, -ऐसी भावना से युक्त साधु-पुरुष होते हैं, ज्ञानी-जन किसी भी जीव को दुःखी-हृदयी बनकर देखना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनके मन में स्व-पर-हित निहित रहता है।
अज्ञानी लोग दो प्रकार के होते हैं- एक वे, जो पर-हित की बात करते हैं, जो स्व-हित नहीं कर पा रहा है, वह पर-हित क्या करेगा?... जो स्वयं गिर रहा है, वह गिरते हुए को क्या हस्तावलम्बन देगा?... जिसके अंदर स्व-कल्याण ही नहीं दिखता, वह अज्ञ पर-कल्याण की क्या बात करेगा? आत्म-कल्याण स्वाधीन मार्ग है? पर-जन बाह्य-निमित्त-मात्र तो हो सकते हैं, पर कल्याण नहीं कर सकते। दूसरे अज्ञ वे हैं, जो स्व-कल्याण के नाम पर परिपूर्ण स्वार्थी हैं, शरीर एवं मन की तुष्टि में सुख-सुविधाओं का जीवन जी रहे हैं, पूर्व-पुण्य के नियोग से भक्त-गणों से सेवा करा रहे हैं, अन्य के प्रति कोई करुणा नहीं दिखती, वात्सल्य व करुणा से रहित व सूखे विशाल सरोवर-जैसा जीवन जी रहे हैं। ज्ञानियो! सरोवर जब स्वयं में भरा होगा, तभी वह निर्मल नीर से अनेक तृषित कण्ठों को आर्द्रता प्रदान करता है, इसीप्रकार जो सत्यार्थ स्व-कल्याण में संलग्न मुमुक्षु होगा, वह नियम से पर-कल्याण का साधन होगा, उसे देखते ही अनेक जीव आत्म-कल्याण की ओर अग्रसर हो जाते हैं, मायाचार से शून्य स्व-हित में लगे योगी को देखते ही भोगी का हृदय भी बदलने