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श्लो. : 23
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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महाराज की सम्यक् समाधि हो गई, तब शेष तीर्थंकरों के जीवन-वृत्त का वर्णन आचार्य गुणभद्र स्वामी ने उत्तरपुराण में किया, जो-कि आचार्य जिनसेन स्वामी के ही शिष्य थे, यहाँ पर वैशिष्ट्य यह समझना कि गुरु के अधूरे ग्रन्थ को पूर्ण करने की हमारी निर्मल परम्परा रही है, वे शिष्य धन्य हैं, जो-कि गुरु के कार्य को पूर्णता प्रदान करते हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी की षट्खण्डागम की शेष टीका को आचार्य जिनसेन स्वामी ने ही पूर्ण किया था, जिनसेन स्वामी के महापुराण को गुणभद्र स्वामी ने पूर्ण किया। यह निर्मल गुरु-भक्ति ही थी, अपूर्व उदाहरण हैं गुरु के अधूरे कार्य को पूर्ण करने के, धन्य है गुरु-भक्ति। मनीषियो! ये श्रुत-वचन हैं, जिसके हृदय में गुरु-चरणों के प्रति आस्था एवं भक्ति परिपूर्ण होती है, वही साधक सम्यक समाधि को प्राप्त होता है और जो श्रुत एवं गुरु के प्रतिकूल प्रवृत्ति करता है, वह एकान्त-सेवी नियम से समाधि-मरण को प्राप्त नहीं होता है, सम्यग-बोधि के फल अर्थात् समाधि को प्राप्त करना है, तो अंतःकरण को विशुद्ध एवं सरल बनाना होगा, जगत्-सम्बन्ध राग, मोह या द्वेष के कारण ही होंगे, समाधि का साधन तो माध्यस्थ्यभाव ही होगा। ज्ञानियो! ध्यान दो प्रसंगों पर-'वाणी बाण भी बनती है, वाणी वीणा भी बनती है, वाणी रुलाती भी है, वाणी आनन्द भी दिलाती है, तत्त्व-बोध भी वाणी से प्राप्त होता है। ज्ञानियो! मधुर वाणी भी पुण्य से प्राप्त होती है और पुण्य-वर्धनी भी होती है, स्व-पर को सुख प्रदान करती है, कर्कश वाणी स्व-पर को क्लेश प्रदान करती है, स्वयं बोलने वाला भी जब एकान्त में अपनी वाणी पर विचार करता है, तब खेद को प्राप्त होता है; जो उसे सुनता है, वह भी क्लेश को प्राप्त होता है। एक बार वाणी का घात लगने पर मधुर से मधुर संबंध क्षण-मात्र में नष्ट हो जाते हैं। ज्ञानियो! कभी वह घात ठीक नहीं हो पाता, अंतरंग में शूल-जैसी चुभती रहती है। विष से भी महा-विषकारी कर्कश वाणी है, करुणा-शील पुरुष को चाहिए कि वह किसी भी जीव के प्रति मर्म-भेदी शब्दों का प्रयोग न करे; तत्त्व-देशना भी करे, तो वह भी वात्सल्य-भाव से करे; किसी भी पुरुष के प्रति कटाक्ष-कारी एवं निन्दा-पूर्ण भाषा का प्रयोग न करे, सत्यार्थ-वक्ता श्रुत की भाषा में ही श्रुत का प्रयोग करता है, ग्रामीण-भाषा का प्रयोग करने में हिंसा-भाव मानता है, -ऐसा समझना चाहिए, तत्त्व-ज्ञान इतना विशाल है कि किसी भी भिन्न पुरुष व विषय को लिये बिना भी कहा जाये, तब भी पूर्ण नहीं हो सकता। वक्ता को तत्त्व-चिन्तक होना चाहिए। बिना चिन्तवन के तत्त्व-उपदेश अन्तरंग में प्रवेश नहीं करता; प्रत्येक शब्द वक्ता के हृदय से स्फुटित हो और श्रोता के अन्तःकरण में प्रविष्ट हो जाये, तभी हृदय आर्द्र होते हैं, साहित्य की भाषाओं की ऊँचाई इतनी श्रेष्ठ नहीं है, जितनी-कि भावों की निर्मलता है, मोक्ष-मार्गी के भावों में