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श्लो. : 18
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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रहता है। अहो! आज देखकर आश्चर्य होता है, साधना की चरम सीमा के भेष को प्राप्त करने के उपरांत भी उदासीनता की छाया में नहीं बैठ पा रहे, संस्थाओं के राग में ब्रह्मचारी एवं यति-मुद्रा को याचकपने में लगाते देखकर लगता है कि अहो! बेचारों ने त्रैलोक्य-दुर्लभ जिन-मुद्रा एवं ब्रह्मचर्य-मुद्रा को प्राप्त किया और सेठों-धनिकों के पीछे ऐसे लगे हैं, जैसे वे ही भगवान् हों। मनीषियो! उभय-भेषों में ये कार्य शोभा नहीं देते, सामाजिक, राजनैतिक गृहस्थ जनों के कार्यों से निज को पृथक् करना ही उदासीनता है, आगम के तत्त्वों को यथार्थ कहना चाहिए, आगामी पीढ़ी यह नहीं समझने लगे कि नाना मठों की स्थापना ही साधु की परिभाषा है। ज्ञानी! सच्चे साधु की परिभाषा तो पर-भावों से अपने को भिन्न रखना और आरंभ-परिग्रह से पृथक् रखकर ज्ञान-ध्यान में लीन रहना है। __अहो मुमुक्षुओ! बहुत ही वात्सल्य-भाव-पूर्वक आपसे कहना चाहता हूँ कि जिन-लिंग और ब्रह्मचारी के श्वेत वस्त्रों की जो महिमा है, उसे उत्साह-शक्ति के साथ निर्दोष रहने दिया जाय, अन्य भेषों में 'श्री' पर दृष्टि रखें, परंतु धर्मात्मा के भेष में इससे बचना ही श्रेष्ठ है, यही सत्यार्थ मोक्ष-मार्ग है, अन्यथा द्रव्य-तीर्थ तो दिखते रहेंगे, परंतु भाव-तीर्थ देखने को नहीं मिलेगा।
धर्मायतन भी आवश्यक हैं, पर उनकी वृद्धि न रक्षा के लिए आशीष मात्र रखें, शेष कार्य समाज करे, समाज को ही शोभा देता है। आप तो स्वयं तीर्थ हैं, रत्नत्रय-धर्म से युक्त आत्मा ही उत्तम तीर्थ है। वह तीर्थ सुरक्षित हो, सभी तीर्थों की शोभा है, यदि रत्नत्रय-तीर्थ को नष्ट करके जो व्यवहार-तीर्थ की रक्षा की बात करे, वह तो ऐसे ही समझना, जैसे- पति-विहीन नारी (विधवा) का श्रृंगार, जब पति ही नहीं, तो-फिर श्रृंगार का कोई अर्थ नहीं है। ज्ञानियो! आत्म-तीर्थ की रक्षा किए बिना मात्र पत्थरों के भवनों में लीन रहना जैनी वृत्ति नहीं है। जैनी वृत्ति तो राग-द्वेष-रहित, निर्मोही, उदासीनता से युक्त तत्त्व-चिन्तवन में लीन और मोक्षमार्ग में परम-उत्साही रहना है निश्चय-व्यवहार-तीर्थ में निज-परिणामों को अनवरत लीन रखना, विषयों-कषायों के निमित्तों पर भी कषाय नहीं करना, पाप से भी द्वेष-बुद्धि का परिहार करना, फिर पापियों से एवं धर्मात्माओं से द्वेष कहाँ! यही सम्यक् तत्त्व-बोध है।।१८।।
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