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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 19
श्लोक-19
उत्थानिका- भगवन्! किस प्रकार की स्वरूप-निष्ठा होनी चाहिए? समाधान- आचार्य-देव समाधान करते हैं
हेयोपादेयतत्त्वस्य, स्थितिं विज्ञाय हेयतः । निरालम्बोभवान्यस्मादुपेये' सावलम्बनः।।
अन्वयार्थ- (हेयोपादेयतत्त्वस्य) हेय और उपादेय तत्त्व के, (स्थिति) स्वरूप को, (विज्ञाय) जान करके, (अन्यस्मात् हेयतः) अन्य पदार्थ रूप हेय अर्थात् त्याग देने योग्य तत्त्व का, (निरालम्बः भव) आश्रय लेना छोड़ दो और, (उपेये) उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य अपने आत्म-तत्त्व का, (सावलम्बनः) (भव) आश्रय ग्रहण करो।।19 ।। ___ परिशीलन- आचार्य भगवन् अकलंक स्वामी इस श्लोक में मुमुक्षुओं पर करुणा करके ग्रहण-योग्य व त्यागने-योग्य तत्त्व की बात कर रहे हैं, दो प्रकार के तत्त्व हैंहेय एवं उपादेय। जो मोक्षमार्ग में साधक हैं, वे उपादेय-तत्त्व हैं एवं जो मोक्षमार्ग में बाधक हैं, वे हेय-तत्त्व हैं, परन्तु ज्ञेयभूत तो दोनों ही हैं, ज्ञाता को गुण एवं दोष दोनों का ज्ञान होना अनिवार्य है, दोष का ज्ञान हेय-रूपता के लिए एवं गुण का ज्ञान उपादेय-रूपता के लिए, परन्तु राग एवं द्वेष दोनों के प्रति नहीं रखना अपेक्षित है, -यही सर्वोदयी तत्त्व है। ज्ञानियो! तत्त्व अग्रांकित तीन तरह से भी जाना जाता हैहेय, उपादेय व उपेक्षा। सात तत्त्वों में अजीव, आस्रव, बन्ध इत्यादि हेय-तत्त्व हैं; जीव, संवर एवं निर्जरा मोक्ष में उपादेय-तत्त्व हैं, यही इनकी विशेषता है। सामान्य की अपेक्षा से यह कथन किया है। यही सातों तत्त्वों में हेय-रूपता एवं उपादेय-रूपता है, जब तत्त्वों को सम्यक्त्व की उत्पत्ति का साधन बनाते हैं, तब सातों ही उपादेय-भूत हैं, सातों ही तत्त्वों में से एक तत्त्व पर अनास्था-भाव है, तो सम्यक्त्व-भाव नहीं है। ज्ञानियो! इन तत्त्वों को सरिता के दो तट में निहारो, जैसे- नर्मदा के दोनों तटों के मध्य नीर बह रहा है, जिसके ऊपर नौका चल रही है, उसीप्रकार निश्चय से एक तट शुद्धात्म-तत्त्व है, दूसरे व्यवहार से सातों तत्त्व हैं, जिसके मध्य श्रद्धा का नीर प्रवाहित 1. कुछ विद्वान् निरालम्बोऽन्यतः स्वस्मिन्नुपेय' पाठ स्वीकारते हैं, पर वैसा-पाठ स्वीकारने में आज्ञा-वाचक क्रिया-रूप
'भव' की श्लोक में अनुपलब्धता होगी, जिसकी अपेक्षा निरालम्बः और सावलम्बनः आदि दोनों पदों के साथ है, एक में उपस्थिति रूप और दूसरे में अध्याहार रूप; अतः 'भव' वाला पाठ ही वरेण्य है।