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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 18
छः माह तक भ्रमण करते रहे, कोई उन्हें समझाए भी तो उसे अशुभ मानते थे, जब कषाय-मोह का उपशमन हुआ, तब देखो - चक्री भरत एवं बलभद्र श्रीराम दोनों उग्र तपस्वी हुए एवं कैवल्य प्राप्त कर परम- निर्वाण - दशा को प्राप्त कर सिद्ध हो गये । मन-वचन-काय तीनों से ही ममत्व का त्याग करो, अल्प- राग भी दीर्घ संसार का कारण है, ऐसा समझना, मोह- सहित दीर्घ श्रुताभ्यास भी संसार की संतति को न्यून करने में सहायक नहीं होता । मुमुक्षु! निर्मोही का अल्प- श्रुताभ्यास भी मोक्ष का कारण है, इसलिए आत्म- हितैषी को चाहिए कि वह नित्य ही एकत्व - विभक्त्व निज आत्मा को वेदे, अन्य पदार्थों को हेय - उपादेय-ज्ञेय रूप से ही देखे, किन्तु यथार्थ परम-उपादेय एकमात्र विशुद्ध आत्मा ही है ।
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आचार्य-प्रवर आगे कहते हैं कि उदासीनता का आश्रय लो; ज्ञानी! लोक विचित्र है, उदासीनता का सत्यार्थ बोध न करके, उदासीनता का अर्थ मुख फुलाकर बैठना समझ बैठे, धर्म-धर्मात्माओं को देखकर भी जिनके चेहरों पर प्रमुदित भाव नहीं आ रहे, काषायिक भाव, अहं भाव, ईर्ष्या-भाव का नाम उदासीनता - भाव नहीं हैं, निज की सहजता को खो देना भी उदासीनता नहीं है। नवीन साधक विचार करते हैं, कहीं लोग मुझे चंचल स्वभावी न मान लें, इसी कारण वे अप्राकृतिक उदासीनता को धारण कर लेते हैं, पर विश्वास रखना कि वह उनकी प्रकृति चन्द दिनों की ही है, शीघ्र उस उदासीनता की मृत्यु हो जाती है और पुनः हास्य कषाय अपना स्थान स्थापित कर लेता है, देखने वाले भी आश्चर्य चकित हो जाते हैं- अहो! गंभीर साधक यकायक मुखर कैसे हो गया? .....जबकि वे गंभीर हुए ही नहीं थे, वे तो उदासी के कवच को धारण किये थे, जैसे शीत- मौसम में व्यक्ति कोट को धारण कर लेते हैं, परंतु ग्रीष्म काल में उसे उतार देते हैं, वैसे ही जो जीव उदासीनता के अर्थ को नहीं जानते, वे भावुकता के मौसम में गंभीरता के कवच को धारण कर लेते हैं, भावुकता शीघ्र समाप्त हो जाती है, भावुकता गई, गंभीरता भी उनकी गई । यथार्थ में गंभीरता एवं उदासीनता दोनों में सहजता होती है, भावुकता का कार्य नहीं है, चंचलता से रहित जो स्वाभाविक अवस्था है, वह गंभीरता है और वात्सल्य अनुराग के साथ विषय-कषायों एवं उनके कारणों से निजात्मा की रक्षा करना, धन एवं धरती के राग से पूर्ण पृथक् जीवन जीना । साधकों का जो जीवन है, वह श्री एवं स्त्रियों दोनों से दूर है, प्राणी मात्र के प्रति साम्य-भाव रखने वाला है, उदासीन भाव रूप है। अग्नि, विष, सिंह, अजगर आदि मृत्यु के मुख से भयभीत होता है, वैसे-जैसे कोई उदासीन-स्वभावी साधक ही मोक्ष मार्ग में राग-वर्धक विपरीत - वस्तुओं से भयभीत