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श्लो. : 18
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
संतुष्ट हो गया, तो कभी शील-संयम का पालन नहीं होगा, 'साधु' शब्द शब्दकोश से समाप्त हो जाएगा, व्यभिचार की सीमा नहीं होगी, लोग जैसे भोजन करना व्यक्ति का सामान्य धर्म मान बैठे हैं, वैसे ही अब्रह्म को भी सामान्य मान बैठेंगे। जबकि जैनदर्शन भोजन करने को भी असाता - कर्म की उदीरणा ही मानता है, भोजन करना भी विभाव-भाव है, भोजन भी छोड़ा जा सकता है, कोई अनिवार्य धर्म नहीं है । कवलाहार मोहनीय कर्म के सद्भाव में ही संभव है। मनीषियो ! यों कहें कि - प्रमत्तदशा तक ही भोजन है, अप्रमत्तदशा में आहार - संज्ञा का ही अभाव है । वहाँ कथञ्चित् आहार करते-करते साधक अप्रमत्त दशा को भी प्राप्त कर सकता है। जहाँ निर्विकल्प-ध्यान दशा है, वहाँ न भोजन का विकल्प, न पानी का । जहाँ ध्यान- ध्याता ध्येय का विकल्प नहीं, वहाँ योगी रोटी के टुकड़ों में अपने उपयोग को कैसे ले जाएगा? .... धन्य है अप्रमत्तयोगी की दशा, .. जहाँ राग-द्वेष विकल्पों के सविकल्प-भाव का अभाव है । ममत्व - परिणाम का विसर्जन कर दिया है, सारे विश्व के राग-द्वेष का मूल कारण ममत्व - परिणाम है, जो जीव ममत्व-भाव का त्याग कर देता है, तो वह परम पारिणामिक भावों की ओर अग्रसर हो जाता है, जहाँ ममत्व-भाव है, वहाँ समता की बात करना अग्नि में कमल-वन का देखना समझना चाहिए । अहो प्रज्ञ ! राग-द्वेष दोष से रहित होकर निर्मोह दशा को प्राप्त करो, मोह-भाव भले नहीं है, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भी मोह के मद में उन्मत्तवत् देखे गये हैं । सर्व-प्रथम देखो चक्री - भरत को, जिन्होंने चक्र के मद में आकर अहो! बाहुबली - जैसे महायोगको धारण करने वाले अनुज पर सुदर्शन चक्र चला दिया था, भैया! चक्री यह भी भूल गये कि चक्र कुटुम्ब पर नहीं चलता, चक्रवर्ती भरतेश आवेश में विवेक छोड़ बैठे और भाई पर चक्र चलाने के कलंक से प्रथम चक्रवर्ती कलंकित हो गया ।
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ज्ञानियो! दोनों भाई कर्म-कलंक से तो रहित हो गये पर भाई ने भाई पर द्वेष-भाव की आँख खोली थी, वह कलंक इतिहास के पृष्ठों पर अमिट हो गया है, उसे समाप्त करने की शक्ति किसी के अन्दर नहीं है, मान- कषाय के राग ने ऐसा द्वेष उत्पन्न किया कि एक श्रेष्ठ भ्राता ने अपने ज्येष्ठपने को ही नहीं श्रेष्ठपने को भी छोड़ दिया । एक क्षण भरतचक्री के उस क्षण के भावों को देखा जाय, तो कितने कालुष- भाव रहे होंगे, कषाय की तीव्रता का इससे बड़ा दृष्टान्त क्या होगा..?..... दूसरी ओर राग की चरम सीमा देखो - श्रीराम एवं लक्ष्मण का भ्रातृ-प्रेम कि भाई की मृषा - मृत्यु के समाचार सुनने मात्र से ही नारायण लक्ष्मण ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया, अनुज के राग में बलभद्र राम, लक्ष्मण के मृत शरीर को अपने कन्धे पर रखकर