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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 18
त्याग करने की बात तो सभी ज्ञानी-जन करते हैं, पर भाव-मिथ्यात्व के बारे में भी विचार करो- कोई गुरु-कृपा से सभी कार्य की सिद्धि करा रहे हैं, तो कोई प्रभु-कृपा से कार्य पूर्ण करा रहे हैं, स्वयं के किये कर्म कहाँ जाएँगे?.... भक्ति की भाषा तो हो सकती है, परंतु सिद्धान्त नहीं है; ये कहना "जैन-सिद्धान्त' के विरुद्ध है कि गुरु-कृपा से सहज-कार्य हो रहा। कार्य लौकिक हो या पारमार्थिक, –ये दोनों कार्य कर्ता के पुरुषार्थ एवं पूर्व-कृत शुभाशुभ, पुण्य-पाप के उदय की अपेक्षा रखते हैं, अज्ञ-प्राणी शुभ को भी सहज कह रहा है और अशुभ को भी सहज कह रहा है। यह अविज्ञता की चरम सीमा है। एक हिंसक कुशील सेवी भी कहने लगा, मैं तो कुछ करता नहीं, जैसे- मकड़ी जाला सहज बनाती है, उसीप्रकार विषय-कषायरत-जन्य-अवस्था सहज है और प्रभु-कृपा से भोग्य-सामग्री भी सहज प्राप्त है, इसलिए मैं स्त्री आदि का भोग-कर्त्ता नहीं, सहज-वेद व्यवस्था है। हाय! हाय! हाय! ये घोर ईश्वरवादी एवं चार्वाकवादी के तुल्य ये सहजवादी मिथ्यात्व कहाँ से प्रकट हो गया। शील, संयम, तप के घातक ये वचन-समूह उदासीनता का आश्रय दिला पाएँगे क्या? ...और उदासीनता के अभाव में क्या दीनता से विमुक्त हो पाओगे? ....अब्रह्म सहज-भाव हो गया, तो ब्रह्मचर्य असहज हो जाएगा, सहज-स्वभाव से मुक्ति मिलती है, फिर-तो लोक में हिंसक, चोर, असत्यभाषी, कुशील-सेवी, परिग्रही उसी भव से सिद्ध-गति में गमन करेंगे, -यह एक प्रश्न है? ......... नरक जाने वाले कौन हो सकते हैं, स्वयं विचार करें?....आपके कुटिल सिद्धान्तों में और ईश्वरवादी के कर्त्तापने में कोई भेद नहीं दिखता। ईश्वर-कर्ता-वादी कुछ भी करे, सभी कार्य ईश्वर के नाम पर छोड़ देता है, वह कहता है कि सभी ईश्वर की कृपा से हो रहा है, इसीप्रकार सहज-वादी कुछ भी कर ले, सब सहज है, ज्ञानी! पाप का बन्ध कर क्यों दुर्गति का भाजन बनता है, क्या एक सौ अड़तालीस कर्म-प्रकृतियों के आस्रव, बन्ध एवं अनुभाग का ज्ञान नहीं है? .......जो भी वेद आदि विकार उत्पन्न हो रहे हैं, वे सहज-भाव से नहीं है, कर्म-कृत भाव-कर्म का विपाक है, कर्म-बन्ध का कर्ता जीव स्वयं है, यदि वेदादि विकार सहज-भाव हो गये, तो वह जीव का स्वभाव कहलाएगा, स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता, वह तो त्रैकालिक होता है, फिर अनन्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा में भी स्वीकार करना होगा, यदि सिद्ध में विभाव-भाव विद्यमान है, तो-फिर परमात्मा कैसे? ....और परमात्मा है, तो विभाव-भाव कैसे? .....दोनों अवस्थाओं में विरोध-भाव है, अतः ध्यान दो कि विकारी-भाव सहज-भाव नहीं, असहज विभाव ही राग-द्वेष की अवस्था है, जो-कि साधु-स्वभाव भी नहीं है। विकारी-भाव को सहज-भाव कहकर