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श्लो. : 18
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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अहो! क्या अज्ञानता है, कषाय से द्रव्य मिलता है कि पुण्योदय से? ....मोही की वृत्ति भी विचित्र होती है, गंभीरता से विचार करो- राग-द्वेष के हेतु से निजात्मदेव की रक्षा करो, सत्यार्थ स्वरूप की भाषा से असत्यार्थ-विषय-कषाय की पुष्टि करके तत्त्व का विपर्यास नहीं करो। सहज-भाव का अर्थ सहज-भाव से ही करो, सहज-भाव को असहज-भाव करने का प्रयास नहीं करो।
ज्ञानियो! अब निर्मल एवं स्थिर चित्त से सहज-भाव पर विचार करो, जो त्रैकालिक ध्रुव वस्तु का स्वभाव है, वह सहज है, पारिणामिक-भाव जो-कि छहों द्रव्यों में अनादि व अनन्त रूप से विद्यमान है, वही किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं कराया गया है, वह सहज-भाव है। जीव-द्रव्य की अपेक्षा से ही समझें. तो जीवत्व-भाव. भव्यत्वभाव, अभव्यत्व-भाव इन भावों का न तो उदय होता है, न उपशम, न क्षय, क्षयोपशम होता है, पारिणामिक-भाव औदयिक-भाव नहीं हैं, जितने भी औदयिक-भाव हैं, वे कर्म-सापेक्षता से देखें, तो सहज-कर्म भी विपाक है, -ऐसा कहा जाता है, परन्तु कर्म-निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के आश्रय से कथन करेंगे, तो वही भाव असहज दिखेगा। ज्ञानियो! यहाँ विशेष बात तो यह समझना कि पानी की शीतलता सहज है, परन्तु उष्णता सहज नहीं है, चाहे खुले आकाश में आदित्य की किरणों से उष्ण हुआ हो, लेकिन सहजता में नहीं रहा, गर्म जल असहज है, कारण क्या है? .......वह उष्णता सूर्य व अग्नि के सापेक्ष है, पानी की उष्णता सोपाधिक है, पानी की शीतलता निरुपाधिक है, जो सोपाधिक है, वह सहज कैसे?....वह तो पर के आधार से भिन्नत्व-भाव से युक्त है, उष्णता अग्नि-द्रव्य की है, पानी तो स्पर्श मात्र से उष्ण हो गया, अग्नि के उष्ण-धर्म से पानी उष्णता को प्राप्त हुआ है, अग्नि-संयोग के पृथक् होते ही पानी अपने सहज-भाव में शीतलता को प्राप्त हो जाता है, उसीप्रकार जीवद्रव्य में क्षमादि-भाव त्रैकालिक सहज भाव हैं, क्रोधादि विकारी-भाव सहज-भाव नहीं हैं। जो भाव आकर नष्ट होते हैं, वे सभी भाव असहज हैं, जो त्रिकाल विद्यमान रहें, वे ही मात्र सहज संज्ञा को प्राप्त हो सकते हैं तथा पर-उपाधि से निरपेक्ष-भाव ही सहज भाव हैं। सहजानन्दी भगवान् आत्मा ध्रुव, ज्ञायक-स्वभावी, अविकारी, शुद्ध, चिद्रूप, निरुपराग व सहज-भाव है, परंतु लोक कितना तत्त्व-ज्ञान से विमूढ़ है आत्म-तत्त्व को नहीं जानने वाले अज्ञ प्राणी अपने-आपको दर्शन-शास्त्री कहने वाले भी बिना नय-विवक्षा के सम्यग् बोध को प्राप्त नहीं हो पाते, उन्हें कर्म-लिप्त अशुद्ध आत्मा में ही सम्पूर्ण आत्मा का धर्म दिखायी देता है। इतना ही नहीं, जहाँ तत्त्व की गंभीर भूल है, उसे सर्व-प्रथम समझो- लोक कितना भ्रम में लिप्त है, द्रव्य-मिथ्यात्व