SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लो. : 18 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1157 यथा-जात-रूप का आनन्द तभी आता है, जब जीव तन के नग्न होने के साथ-साथ राग-द्वेष दोष से निज अन्तःकरण को भी स्व-पुरुषार्थ से नग्न कर लेता है, बिना अन्तःकरण की नग्नता के तन की नग्नता किंशुक-पुष्पवत् सुगन्ध-शून्य सुंदरता है, -ऐसा समझना। सर्वप्रथम पुरुषार्थ मोक्ष-मार्ग में राग-द्वेष का अभाव करने का होना चाहिए, द्रव्य-लिंग प्राप्त होते ही भीतर के बोध पर शोध प्रारंभ कर देना चाहिए। तन-साधना में तीव्रता दिखने लगी, लेकिन मन के अंदर उत्पन्न होने वाली राग-द्वेष की लहरें बराबर स्फुटित हो रही हैं, उन पर कोई नियंत्रण का विचार भी यदि नहीं आ रहा, तो समझना मैं उभय-मार्ग से च्युत हो गया, गृही-मार्ग, मुनि-मार्ग से। राग-द्वेष के सद्भाव में सहज-भाव का अभाव रहता है, राग-भाव सोपाधिक भाव है, सहज-भाव निरुपाधिक भाव है, पर-भावों से भिन्न जो सत्यार्थ-स्वरूप वस्तु का है, वह तो सहज-भाव है, जो अन्य में अन्य का निमित्त-भाव है वह औपाधिक दशा है। निरुपाधिक दशा ही पारिणामिक-भाव है, जो-कि छहों द्रव्यों में विद्यमान है। औपाधिक जो दशा है, वह औदयिक दशा है, अज्ञानी जीव सम्यग्रूप से सत्य की गवेषणा किये बिना, प्रवचन का अध्ययन किये बिना प्रवचन देना प्रारम्भ कर देता है। यह स्व-पर का शत्रु-भाव समझना, जो वक्ता अर्हद्वचनों का ज्ञाता नहीं, वह अर्हत्-सूत्र पर क्या व्याख्यान करेगा, अर्हत्-सूत्रों का सतत अभ्यास करने वाला ही सत्यार्थ-मार्ग का प्रतिपादक होता है, वह स्व-पर का कल्याण करता है। जो तत्त्व-ज्ञान-शून्य पुरुष हैं, वे भूतार्थ-आत्म-तत्त्व का बोध नहीं दे सकते। ___आचार्य-प्रवर अकलंक स्वामी ने बहुत सुंदर कथन किया है कि वक्ता स्व-पर का कल्याणकारी होता है, वह जगत् के कल्याण में परम-सहायक होता है, यदि श्रुताराधना-पूर्वक वचन बोलता है, तो अवश्य ही वह ज्ञान भी फल-रूप चारित्र, चारित्र के फल-रूप निर्वाण-दशा को प्राप्त करता है, जैसा कि कहा भी गया है प्रवचनपदान्यभ्यस्यास्तितः परिनिष्ठितानअसकृदवबुद्धेद्धाद्बोधाद् बुधो हतसंशयः। भगवदकलङ्कानां स्थानं सुखेन समाश्रितः कथयतु शिवं पन्थानं वः पदस्य महात्मनाम् ।। -लघीयस्त्रय, श्लो. 78 अर्थात् प्रवचन के पदों का अभ्यास करके तथा प्रवचन में वर्णित जीवादि पदार्थों को संकर-व्यतिकर आदि दोषों से रहित निर्मल ज्ञान के द्वारा पुनः-पुनः चिन्तवन करके संशय रहित हुआ यह ज्ञानी भगवान् अरहन्तों के स्थान को प्राप्त होकर आप-सब-को
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy