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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 18
महात्माओं (सिद्धों) के पद को प्राप्त कराने वाले मोक्ष-मार्ग का सुख-पूर्वक उपदेश करे। आगम को प्रवचन भी कहते हैं, प्रवचन के पदों का अभ्यास करने से ज्ञानी जीव प्रवचन में प्रतिपादित तत्त्वों को अपने निर्मल ज्ञान के द्वारा सम्यक् रीति से जान लेता है और इससे उसका सब प्रकार का संशय दूर हो जाता है। इसतरह प्रवचन के पदों का अभ्यास करने से ज्ञानी जीव श्रुत-ज्ञान में पारंगत हो जाता है, तदनन्तर मोक्ष-मार्ग में क्रमशः आगे बढ़ता हुआ शुक्ल-ध्यान के द्वारा चार घातिया कर्मों का क्षय करके निष्कलंक अरहंत परमात्मा बन जाता है। इसके अनन्तर अरहन्त परमात्मा (केवली जिन) समागत भव्य-आत्माओं को मोक्ष-मार्ग का उपदेश देते हैं, आगम के अभ्यास का यह परार्थ-सम्पत्ति-रूप फल है। ___ मुमुक्षुओ! सम्यक्-तत्त्व-ज्ञाता सत्यार्थ-तत्त्व का उपदेशक श्रेष्ठ पुण्य का संचय करता है, स्व-पर उपकारी होता है, जो पुरुष तत्त्व-ज्ञान-शून्य आत्म-साधना भी कर ले, पर तब भी वह साधक स्वयं का कल्याण भी नहीं कर पाता, न पर के कल्याण में सहकारी हो सकता है। कुछ ऐसे जीव हैं, जो आत्म-तत्त्व से युक्त हैं, परंतु पर को उपदेश देने की सामर्थ्य नहीं रखते, वे अपना कल्याण तो कर लेते हैं, परंतु श्रमणसंस्कृति के उत्थान में उनका कोई स्थान नहीं होगा, वे स्वार्थी ही होंगे। परमार्थ से जो अच्छा है, लेकिन व्यवहार-तीर्थ के लिए एवं निश्चय-तीर्थ के लिए दोनों ही तीर्थों की प्रवृत्ति में उनका ही सहकारी-पना है, जो तत्त्व-ज्ञान सम्पन्न होकर श्रेष्ठ तत्त्वोपदेशक भी हैं, ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा ही श्रमण-संस्कृति पूज्यता को प्राप्त हुई है, ज्ञानी-जनों के प्रति बहुमान अनिवार्य है तथा सच्चे मौन-साधकों की आराधना भी कर्म-निर्जरा का कारण है, ज्ञानियों को साधकों का बहुमान रखना अनिवार्य है, साधकों को भी ज्ञानी-जनों का बहुमान रखना चाहिए। एक निश्चय-तीर्थ की वृद्धि में है, तो एक व्यवहार-तीर्थ, दोनों तीर्थों की प्रवृत्ति ही मोक्ष-मार्ग है, एक के बिना दूसरे की सिद्धि नहीं होती, -ऐसा समझना चाहिए। सरिता तो दो तटों के बीच ही प्रवाहित होती है, एक-एक तट से कभी भी किसी भी देश, काल, क्षेत्र में सरिता का बहाव नहीं देखा जाता है, यह बात आगम-प्रमाण के साथ लोक में प्रत्यक्ष दृष्टित्त्गोचर भी है। उभय नय ही तत्त्व-बोध के साधन हैं, एकान्त में दूषण है। वक्ता को चारों अनुयोगों का ज्ञान रखना अनिवार्य है। एक अनुयोग की रुचि कभी भी तत्त्व के पूर्ण ज्ञातापन की पहचान नहीं है। चारों के अध्ययन होने पर फिर भले ही एक पर रुचि रहे, परंतु ज्ञान चारों का होने से किसी भी अनुयोग को स्व-स्व-लक्षण से अभूतार्थ तो नहीं कहोगे। चारों अनुयोग स्व-विषय की अपेक्षा से भूतार्थ ही हैं, जिस अनुयोग का जो