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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 18
आयु-कर्म के अनुसार उत्पन्न हुआ, माता-पिता की भूमिका मात्र शरीर-निर्माण में साधन है, निमित्त-भूत है, उपादान तो संतान का आयु- कर्म तथा कर्म- नोकर्म वर्गणाओं का संघात है, अन्य कोई पुरुष विशेष का कर्त्ता नहीं है। भोले जीवो! मिथ्या भोलेपन का अब तो विसर्जन कर ही देना चाहिए । विवेक- पूर्वक प्रज्ञा का प्रयोग करो, व्यर्थ के राग के अंगारे में क्यों निज ध्रुव अखण्ड समरसी -भाव का संघात कर रहा है, प्रत्येक जीव की परिणति स्वाधीन है, पर के कर्माधीन नहीं है । स्व-कृत कर्मोदय ही फलित होता है, अन्य का अन्य में कर्म विपाक नहीं होता, जो जिसप्रकार का बन्ध कर लेता है, उसका उदय भी स्व-कर्मानुसार ही होता है, भिन्न पुरुष का कर्तापन तेरे शुद्ध आत्म-द्रव्य में प्रवेश नहीं कर सकता, तेरा कर्मास्रव ही तेरे शुभाशुभ का कारण है, अन्य किसी को किञ्चित् भी स्वीकारता है, तो ध्यान रखना - तू तो घोर मिथ्यात्व की निद्रा में निमग्न है। ज्ञानी! सब-कुछ छूटने के उपरान्त भी मिथ्यात्व को नहीं छोड़ सका, तो जीवन में कुछ भी नहीं छूटा । तत्त्व - बोध में स्वात्म की बोधि करो, व्यर्थ के राग-द्वेष के दोषों से भगवती आत्मा को दूषित करते हो, तू तो चिद् - रूप प्रभुत्व-शक्ति में सम्पन्न ध्रुव भगवान् आत्मा है, तेरा अन्य से कोई भी प्रयोजन नहीं है, स्वभाव से तेरे लिए पर-पदार्थ अभूतार्थ हैं, पर के लिए तू भी अभूतार्थ है । स्व-तत्त्व ही स्व के लिए भूतार्थ है, सहज भाव से निज स्वयंभू की पहचान करो। " अहमिदम्" भाव को निजभाव से भिन्न देखो, – “अहमिदं ममेदं" भाव ही संसार के साधन हैं । न संघ निज स्वभाव है, न साथी, गृह, दारा, पुत्रादि गृहस्थ- अपेक्षा पर हैं, शिष्य - शिष्याएँ, भक्तों की भीड़ भी निज-धर्म से भिन्न हैं । भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी के शब्दों पर ध्यान दो
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णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा । ।
- प्रवचनसार, गा. 203
अर्थात् मैं दूसरों का नहीं हूँ और न दूसरे मेरे हैं, एक ज्ञान - स्वभाव वाला हूँ। इसप्रकार जो ध्यान में आत्मा को ध्याता है, वही आत्मा का ध्याता है ।
णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि । इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो
जधजादरूपधरो ।।
- प्रवचनसार, गा. 204
अर्थात् न मैं दूसरों का हूँ और न ये लोग मेरे हैं, इसप्रकार भाव करने वाला जितेन्द्रिय यथा- जात-रूप को धारण करने वाला होता है।