________________
श्लो. : 18
स्वरूप-संबोधन - परिशीलन
के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव में ईश्वर - अंश भी नहीं है, जो ईश्वर-अंश स्वीकारता है, वह प्रत्येक जीव की स्वतंत्र - सत्ता के ज्ञान से अनभिज्ञ है। प्रत्येक जीव का शुभाशुभ, दुःख-सुख स्वतंत्र रूप से प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है। दो संतानें एक पिता की हैं, फिर भी दोनों में भिन्न- पना दिखता है, ज्ञान में, श्रद्धान में, आचरण में, धन-वैभव में, सभी क्रियाओं में पृथक्त्व भाव है, यदि ईश्वर अंश होते, तो सभी अवस्था सम होती, पर ऐसा नहीं है, अतः ध्यान रखो - प्रत्येक जीव स्वतंत्र ही है, कण-कण स्वतंत्र ही है, द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता को जाने बिना भेद - विज्ञान की भाषा अधूरी है, भेद-विज्ञान का अर्थ है- प्रत्येक द्रव्य को अन्य अन्य द्रव्य से अन्य ही स्वीकारना, यह स्वतंत्रता कहने का मेरा आग्रह नहीं, पन्थवाद - सन्तवाद नहीं, अपितु वस्तु का स्वभाव ही है, कोई विपरीत आस्था कर भी ले, परन्तु वस्तु-व्यवस्था कभी विपरीत हो नहीं सकती, यह ध्रुव भूतार्थ है । ज्ञानियो! स्व-प्रज्ञा का सहारा लेकर ही तत्त्व का चिन्तवन करना, तत्त्व - चिन्तवन के लिए पर-प्रज्ञा का सहारा नहीं ले लेना, जो भी साक्षात् अनुभूत होता है, वह स्व-प्रज्ञा का ही सत्यार्थ होता है, अन्य की प्रज्ञा से जो चलता है, वह कई जगह भ्रमित होता है, जो लोक- शास्त्रों में लौकिक जनों
1
/155
I
लिखकर रखा है, उसे स्वीकार नहीं कर लेना, सत्यार्थ की कसौटी पर कसकर ही तत्त्व के प्रति जिह्वा हिलाएँ, अन्यथा मौन रखना ही सर्वोपरि श्रेयस्कर है । स्वयं के अंदर क्या इतनी विचार-शक्ति नहीं है, जो कि साक्षात् दिखायी दे रही है, पुत्र के द्वारा किया गया भोजन पिता के उदर को नहीं भरता, दोनों को अर्थात् पिता-पुत्र को पृथक्-पृथक् ही भोजन करना पड़ता है, यदि अंश-रूपता घटित होती, तो फिर पिता के द्वारा किये गए भोजन से पुत्र की क्षुधा उपशमन को प्राप्त होनी चाहिए थी । व्यर्थ के क्लेश को क्षणार्ध में समाप्त करो, प्रत्येक जीव द्रव्य-स्वभाव से परिणत है, अन्य के द्वारा परिणत स्वीकारना जैन-दर्शन के विरुद्ध है, ऐसा कहें अथवा वस्तु स्वरूप से ही भिन्न है । कुछ अल्पधी संयम - साधना के मार्ग पर स्थित होकर भी, यों कह उठते हैं कि मिथ्या-राग के वश होकर, गुरु-शिष्य व कुटुम्ब के शरीर भले दो दिखते हों, पर हम-दोनों की आत्मा एक है। अहो! "एक माँहि अनेक राजत" सूत्र का स्मरण करो, जब सिद्ध भगवान् एक में अनेक विराजते हैं, तब भी वे शुद्ध सिद्ध भगवान् कभी भी पर-रूप नहीं होते, वे स्व-चतुष्टय में ही विराजते हैं, फिर भिन्न-भिन्न देहों में रहने वाले जगत्-प्राणी एक ईश्वर अंश किसी भी अवस्था में नहीं हो सकते। न पिता की आत्मा पुत्र में हो सकती है, ऐसे ही पुत्र पिता का अंश नहीं है, दोनों ही स्वतंत्र जीव-द्रव्य हैं, जनक - जननी के सम्बन्ध से जीव ने जन्म नहीं लिया, जीव तो