________________
154/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 18
श्लोक-18
उत्थानिका- गुरु-चरणों का अनुरागी, मुक्ति-कन्या का रागी अन्तेवासिन् स्व-कल्याणार्थ पृच्छना करता है- भगवन्! तत्त्व-ज्ञानी को कैसा बनना चाहिए?..... समाधान- आचार्य-भगवन् शिष्य की जिज्ञासा का समाधान करते हैं
ततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै, निर्मोहो भव सर्वतः ।
उदासीनत्वमाश्रित्य, तत्त्वचिन्तापरो' भव।। अन्वयार्थ- (ततः) इस कारण, (दोषनिर्मुक्त्यै) राग-द्वेष, क्षोभ, व्याकुलता, क्रोधादि दोषों से छूटने के लिए, (सर्वतः) समस्त इष्ट-अनिष्ट विषयों से, (त्वं) तू, (निर्मोहो) मोह-ममता-रहित, (भव) होकर, (उदासीनत्वम् आश्रित्य) शरीर से, संसार के विषय-भोगों से उदासीन बनकर, (तत्त्वचिन्तापरः) आत्म-तत्त्व के चिन्तवन में तत्पर, (भव) हो जाओ।।18।।
परिशीलन- आचार्य-देव अकलंक स्वामी ममत्व-भाव-रहित शून्य-स्वभाव की ओर मुमुक्षुओं को प्रेरित कर रहे हैं। शून्य का अर्थ जड़ नहीं समझना, शून्य का अर्थ-आत्मा पर-भावों से भिन्न है, पर-भाव-अपेक्षा शून्य है एवं निज-भाव-अपेक्षा अशून्य है। यह ध्रुव आत्म-द्रव्य परिपूर्ण आदि-अनन्त-रहित एक है, जिसमें हर्ष-विषाद की तरंगें नष्ट हो चुकी हैं, शुद्ध-चित्त ज्योति-भूत उद्योतमान है। प्रमाण-नय-निक्षेप के विकल्प भी जहाँ विलय को प्राप्त हो चुके हों, वह अखण्ड द्रव्य है अशरीरी भगवन् आत्मा, जिसका निज चैतन्य-रस-पान ही परम अमृत-भूत भोजन है, परम उदासीनता है, जिसमें घृत-पूरित मोदक हैं, -ऐसा परम-संवेग स्वभाव-रूप शून्य-भाव है, जड़ताशून्य, ज्ञान-गुण में परिपूर्ण, संकल्प-विकल्प से रिक्त उद्योतमान विशद आत्म-तत्त्व है, जो-कि अन्य पर-द्रव्यों से अत्यन्त भिन्न है।
ज्ञानियो! लोक में जितने भी पदार्थ दृष्टिगोचर हैं, उन सभी पदार्थों में एक-मात्र जीव-द्रव्य एक चैतन्य-स्वभावी है, अन्य द्रव्यों से जीव-द्रव्य का अत्यन्ताभाव है, इतना ही नहीं; ज्ञानी! प्रत्येक जीव का अन्य जीव की अपेक्षा से भी अंत्यन्ताभाव है, प्रत्येक जीव स्व-चतुष्टय में है, पर-चतुष्टय में नहीं है। न माता-पिता का अंश पुत्र है, जगत्
1. कुछ विद्वानों ने 'तत्त्वचिन्तापरो के स्थान पर 'तत्त्वचिन्ता परो' पाठ भी दिया है, पर वह अर्थ व बहु-पाठ
उपलब्धता की दृष्टि से संगत नहीं बैठता।