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श्लो. : 17
तत्त्वं स्वरूपे नृत्यस्य प्रभेदे परमात्मनि ।
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
- वान्तवर्गे / विश्वलोचन कोश / 360
अर्थात् स्वरूप, नृत्यभेद, परमात्मा – ये तत्त्व के विश्वलोचन - कोशीय अर्थ हैं। यहाँ पर दो अर्थों को ग्रहण करना स्वरूप एवं परमात्मा, जो जीव कषाय से रंजित है, उसे वस्तु-स्वरूप का भान नहीं होता । इस अध्यात्म - शास्त्र में परम उपादेय-भूत वस्तु परम-विशुद्ध, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक-स्वभावी, परम-पारिणामिक भगवान् आत्मा है।
कषाय परम-तत्त्व आत्मा एवं परमात्मा दोनों के ही स्वरूप - ज्ञान को चित्त में ग्रहण नहीं करने देती, जैसे- नीले रंग से रंगे हुए वस्त्र में कौंकुमी - रंग दुराधेय है, यानी चढ़ना कठिन है । उसीप्रकार अशुभ- भाव कषाय परिणाम, चिद्-रूप पर-भाव से भिन्न आत्मा के स्वभाव - प्राप्ति में बाधक हैं।
ज्ञानियो! निजभाव से परभाव तथा जो तेरे विभाव के साधन हैं, स्त्री पुत्रादि, गुरु-शिष्यादि - ये भी तेरे से अत्यन्त भिन्न हैं, कषाय के वश हों, इसलिए समझ नहीं पा रहे, ये दोष तेरे कषाय-भाव हैं। तेरे पड़ौसी के पुत्र-पुत्री तेरे नहीं हैं । अन्य परम्परा तेरे से भिन्न है, विश्वास रखो, तेरी स्व-गुरु परम्परा भी तेरे अखण्ड आदि अन्त-रहित ज्ञायक-भाव से भिन्न है, क्यों राग में रँगकर अपने अशरीरी सहज परम-पारिणामिक भाव से निज भाव को भिन्न करता है । अहो प्रज्ञ! " आत्म-स्वभावं पर भाव -1 व-भिन्नम्” का ध्यान कर । ।१७ ।।
* पूजी जाती उनकी वाणी जो साधते
मौन में
और
जिन की वाणी
खिरती.... सर्वांग से .... ।
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विशुद्ध-वचन
* होता नहीं मोक्ष केवल मुद्रा से होता वह तो
साधना से.... तप से.... ।