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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 15
श्लोक-15
___ उत्थानिका- यहाँ पुनः शिष्य जिज्ञासा प्रकट कर रहा है- भगवन्! क्या मोक्ष-मार्ग निश्चय ही है?... अन्तरंग हेतु ही परम-साधन है, एक-मात्र अंतरंग हेतु से कार्य की सिद्धि हो जाती है क्या? ....या-फिर बहिरंग कारणों का होना भी अनिवार्य है?.....
समाधान- आचार्य-प्रवर भट्टाकलंक स्वामी समाधान करते हुए कहते हैं कि बिना बहिरंग कारण के अन्तरंग साधन घटित नहीं होता; वे कहते हैं. 'तदेतन्मूलहेतोः स्यात्कारणं सहकारकम् ।
यद्बाह्यं देशकालादिः तपश्च बहिरङ्गकम्।। अन्वयार्थ- (एतन्मूलहेतोः) इसप्रकार अन्तरंग उपादान मूल कारण का, (यत्) जो, (देशकालादि) देश व काल आदि, (बाह्य) बाहरी, (च) और, (तपः) अनशन आदि बाह्य तप, (सहकारक) सहकारी, (कारण) कारण हैं, (तत्) वह, (बहिरङ्गकम्) बहिरंग उपाय, (स्यात्) होता है।।15।।
परिशीलन- विश्व-व्यवस्था कारण-कार्य, साधन-साध्य, निमित्त-उपादान, हेतु-हेतुमद् भाव से चल रही है, बिना कारण के कार्य होता नहीं देखा-जाता, जहाँ-जहाँ कार्य होते हैं। उनके साथ नियम से कारण निहित होता है, आवश्यक नहीं कि वह चाक्षुष ही हो अथवा उसके पास सभी की दृष्टि प्रवेश कर जाए; जैसे- कुम्हार के चके के नीचे की कील बाहर से किसी को दिखायी नहीं देती, पर क्या बिना कील के चाक चल रहा है? ...अपितु नहीं चल रहा है। पुरुष-कृत प्रेरणा एवं अधस्तन कील चक्र के लिए सहकारी हैं, बिना सहकारी के कार्य की निष्पत्ति नहीं देखी जाती। एक कार्य की सिद्धि के लिए अनेक सहकारी कारणों की आवश्यकता होती है, एक-कारण-मात्र से भी कोई कार्य पूर्ण नहीं होता, ये अवश्य हो सकता है कि कोई कारण सामान्यसाधना है, कोई साधकतर है, तो कोई साधकतम है। तर-तम प्रत्यय-बुद्धि अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, जैसे तीव्रतर, मन्दतर-मन्दतम। जब भावों की विशुद्धि तीव्र होती है, तब कर्म-निर्जरा प्रारंभ होती है, सामान्य सहज निर्जरा की अपेक्षा अधिक होती है,
1. इस श्लोक के भी दो तरह के पाठ मिलते हैं- पहले चरण का प्रारम्भ यदि 'यद्' से मानें, तो तीसरे चरण
का प्रारम्भ 'तद' से मिलता है और यदि प्रथम चरण का प्रारम्भ 'तद्' से मानें, तो तीसरे चरण का प्रारम्भ 'यद्' से है; अर्थ-संगति व व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से दोनों पाठ समुचित हैं।