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श्लो. : 13 एवं 14
व्यवहार - चारित्र - मात्र मोक्ष - दायक नहीं हो सकता, इसलिए प्रत्येक व्यवहार - रत्नत्रयआराधक योगी को व्यवहार में संतुष्ट होने की आवश्यकता नहीं है, जो व्यवहार - संयम में ही मोक्ष मार्ग एकान्त से मान बैठे हैं, वे परमानंद स्वरूप भगवत्ता से रिक्त ही रहेंगे । अतः मनीषियो ! ध्रुव, अखण्ड चैतन्य-धर्म की अनुभूति में लीन होना अनिवार्य है । जो स्वरूप पर भावों से परिपूर्ण भिन्न है, एक अंश - प्रमाण भी आत्मा पर-भाव रूप नहीं है । भूतार्थ-नाश्रित तत्त्व ही उपादेय है । .. पर ज्ञानियो! बिना व्यवहार-रत्नत्रय के शुद्ध - बुद्ध - भावना - मात्र मोक्ष - मार्ग नहीं है, भावना से मोक्ष मार्ग नहीं बनता, भाव-संयम से मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है, उभय रत्नत्रय निश्चय एवं व्यवहार ही सत्यार्थ हैं, एक-एक की एकता मोक्ष मार्ग नहीं है, व्यवहार साधन है, निश्चय साध्य है, – ऐसा समझना चाहिए । ।१३-१४ ।।
* यदि नवनीत है नारी
तो
अग्नि है पुरुष, जो होगा संयोग
* महत्त्वहीन हैं
बिना
सुगन्ध
के
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
नवनीत - अग्नि का,
तो पिघलेगा ही....... और जलेगी ज्वाला ही..... ।
फूल
और
बिना चारित्र के प्राणी......... ।
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विशुद्ध-वचन
* नहीं दिखता उल्लू को दिन में
कागको
रात में
पर
कामी पुरुष को
न दिखता
दिन में ही
और न
रात में........ ।
* जो पा लेते
स्वयं को
वेही
शिव को भी....... ।
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