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श्लो. : 13 एवं 14
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।।
-प्रवचनसार, गा. 9 अर्थात् निश्चय से चारित्र ही धर्म है, वह धर्म साम्य-भाव है, ऐसा आगम में कहा है, वह साम्य-भाव मोह-क्षोभ-रहित आत्मा का परिणाम है। चारित्र और धर्म दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, धर्म-रहित चारित्र नहीं होता, चारित्र-रहित धर्म नहीं होता। चारित्र की यह अनुपम परिभाषा लोकोत्तर है। मात्र क्रिया-चर्या का नाम चारित्र नहीं, अपितु साम्य-भाव का नाम चारित्र है, साम्य-भाव के अभाव में चारित्र संभव नहीं है। ज्ञानियो! वनवास में निवास, सम्पूर्ण श्रुत की आराधना, काय, क्लेश, अनेक प्रकार के घोर तप, मासोपवास, मौनव्रत आदि की साधना भी साम्य-भाव के अभाव में अंक-विहीन शून्य है, जैसे- अंक से रहित शून्य शून्य ही रहता है, उसकी कोई कीमत नहीं होती, उसीप्रकार साम्य-भाव-शून्य श्रमण का चारित्र शून्य है, साम्यता ही चारित्र है वही धर्म है। यहाँ पर भाव्य-भावक सम्बन्ध समझना परिणाम-भाव है, परिणामी भावक है, यानी भाववान् है। यहाँ पर अन्वय समझना चाहिए कि जहाँ-जहाँ साम्य-भाव है, वहीं-वहीं चारित्र है, व्यतिरेक भी लगाना- जहाँ-जहाँ चारित्र नहीं है, वहाँ-वहाँ साम्य-भाव नहीं है। सत्यार्थ-स्वरूप का ज्ञान होना अनिवार्य है, जगत् चारित्र की यथार्थता से प्रायःकर अपरिचित ही रहता है, वह तो भेष-मात्र में उलझकर बाह्य आडम्बरों की परिणति में ही चारित्र संज्ञा घटित कर लेता है, पर ज्ञानियो! भगवन् कुन्दकुन्ददेव की परिभाषा को जब देखते हैं, तब मालूम चलता है कि भूतार्थ-चारित्र क्या है, क्या सन्त-पन्थ के विकल्पों में चारित्राचार का पालन होता है, जब स्वरूप में चरण होता है। स्वरूप में चरण ही चारित्र है, स्व-चरण साम्य-भाव में ही है। अ-साम्य-भाव से स्व-चरण यानी स्वरूप में चरण नहीं होता, वह साम्य-भाव मोह-क्षोभ-रहित परिणाम है, मोह यानी दर्शन-मोह, मिथ्यात्व समझना, क्षोभ यानी चारित्र-मोह, असंयम-भाव समझना। जिनके सद्भाव में सम्यक्त्व एवं चारित्र का घात होता है, वह मोह-क्षोभ-भाव है, जब-तक ये दोनों आत्मा के परिणामों में विराजे हैं, तब-तक चारित्र-भाव का होना खर-विषाण-वत् है। आर्त्त-रौद्र दुर्ध्यान एवं विषय-कषाय राग-द्वेष भावों से रहित जो जीव की परिणति है, वह साम्य-भाव है, साधक के लिए सर्वाधिक साम्य-भाव की रक्षा के भाव रखना अनिवार्य है। साम्य-भाव के अभाव में भेष-चारित्र अनन्त बार भी धारण क्यों न कर लें? ....परंतु वह परम निर्वाण-दशा को