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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 13 एवं 14
वृत्ति अलौकिक होती है, उन्हें लोकाचार में आप-जैसे सुधी श्रावक विद्वान् ले जाने का विचार करें, –यह उचित नहीं। परमार्थ से विचार करें कि क्या जैन-योगियों की पहचान आयतन से है? ...देव-पूजा एवं नव-देवताओं की आराधना के लिए सराग चर्या के धारक मुनिराज उपदेश कर सकते हैं।
जैन-योगियों का चारित्र कैसा होता है ? आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी भी कहते हैं
चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात्। सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्।।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 39 क्योंकि वह चारित्र समस्त पापयुक्त मन, वचन, काय के योगों के त्याग से सम्पूर्ण कषायों से रहित निर्मल, पर-पदार्थों से विरक्त-रूप और आत्म-रूप स्वरूप होता है।
अहो प्रज्ञ! सूत्र के एक-एक तत्त्व पर चिन्तन करो, भूतार्थ-दृष्टि से क्रिया-रूप चारित्र भी स्वभाव-भूत होने पर ही निर्दोष पलता है, जब-तक अन्तरंग निर्मलता नहीं आती, तब-तक आगमिक चर्या में विशुद्धि नहीं आती। कैसे बैठें? कैसे चलें? कैसे भोजन करें? कैसे भाषण करें? कैसे शयन करें? कैसे आसन लगायें?.... जिससे पापास्रव एवं पापबन्ध न होवे। सम्पूर्ण प्रश्नों का एक ही समाधान है कि कोई भी क्रिया यत्नपूर्वक करें, जिससे पापबंध न होवे। यह यत्न-प्रवृत्ति ही सावद्ययोग-रहितप्रवृत्ति होती है, जिसमें नवकोटि से पाँचों पापों से रहित आत्मा की प्रवृत्ति होती है। एक-एक पग, एक-एक पल सावधान रहे, वह प्रमाद-शून्य-चर्या होती है। सर्वप्रथम पाप-सूत्र यदि कोई है, तो उसका नाम 'प्रमाद' है, सम्पूर्ण पापों के साथ प्रमाद शब्द जुड़ा हुआ है, जहाँ-जहाँ प्रमाद है, वहाँ-वहाँ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह है। इनसे रहित अवस्था, सावद्य-रहित अवस्था, चार विकथाओं से रिक्त परिणति जिनकी है, वे पाप-शून्य त्यागी हैं। जो उक्त परिणति से युक्त हैं, वे पाप-जीव हैं, पाप-जीव कभी भी चारित्र-युक्त नहीं होता, जब वही जीव पाप-प्रकृति का त्याग करता है, तब पुण्य-जीव बनकर परमात्मा बन जाता है। जब जीव सम्पूर्ण कषाय-रहित होता है, पर-पदार्थों से निज स्वभाव को अत्यन्त भिन्न स्वीकारते हैं, वही आत्म-स्वरूप चारित्र है। आत्म-स्थ हुए बिना परमार्थ-चारित्र का प्रकटीकरण नहीं होता। मनीषियो! निश्चय से चारित्र ही धर्म है, वह चारित्र कैसा है? आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है