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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 12
कभी भी भव्य नहीं हो जाता, न कभी उसका कल्याण ही होगा। विषयों में भ्रमण करते हुए मन के वशीकरण का साधन ज्ञान-वैराग्य ही है, जो आराधक निर्मल-भाव से युक्त होकर श्रुत का पान करता है, उसको अध्ययन करते-करते ही शान्त-चित्त का अनुभव होता है, यही एकान्त का श्रुतावलम्ब निर्मल, निर्विकल्प समाधि का साधन है, यही आत्म-शुद्धि का उपाय है। जैसा कि आचार्यश्री वट्टकेर स्वामी जी कह रहे हैं
जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि।। जेण मित्तीपभावेज्ज, तं णाणं जिण-सासणे।।
-मूलाचार, गा. 268 अर्थात् जिसके द्वारा जीव राग से विरक्त होता है, जिसके द्वारा मोक्ष में राग करता है, जिसके द्वारा मैत्री को भावित करता है, जिन-शासन में वह ज्ञान कहा गया है।
ज्ञानियो! गाथा में राग-द्वेष से विरक्त होने का नाम ज्ञान कहा गया है, जो जीव शास्त्र-ज्ञानी होकर एवं चारित्त धारण करके भी विशालता से शून्य है, उसका बाह्य ज्ञान है, भीतर का तत्त्व-बोध नहीं है, जब तत्त्व-बोध से प्राणी आर्द्र-चित्त होता है, तब सम्पूर्ण पापों से विरक्त-भाव रखता है, सर्व-पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता का भान हो जाता है, प्रत्येक पदार्थ के रहस्यों को उसकी प्रज्ञा जान लेती है, तत्त्व-ज्ञानी पुरुष को कोई आश्चर्य नहीं रह जाता, सम्यग्ज्ञान होते ही एक खुलापन आ जाता है, सम्पूर्ण संकीर्णता स्वयमेव समाप्त हो जाती है। (यथावद्वस्तुनिर्णीतिः) जैसी वस्तु है, उसे वैसी की वैसी, ज्यों की त्यों जानता है, वह सम्यग्ज्ञान है, जो-कि संशय, विपर्यय और विमोह से रहित आत्मा का निज-स्वरूप है। त्रय-दोष-रहित ज्ञान ही सम्यक्पने को प्राप्त होता है, समारोप-रहित होता है, सम्यग्ज्ञानी पुरुष न्यूनता, अधिकता से रहित ही कथन करता है व जो तत्त्व के विपर्यास से रहित निःसंदेह-रूप कथन करता है, उसी का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। उसे आठ गुणों से सम्पन्न होना चाहिए, एक अंग भी हीन है, तो वह ज्ञान सम्यक्त्वपने को प्राप्त नहीं होता। आचार्य-प्रवर अमृतचन्द्र स्वामी ने आठ अंगों का वर्णन किया है तथा मूलाचार जी में वट्टकेर स्वामी ने भी कहा है
ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च। बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम्।।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 36