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श्लो. : 12
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्ठविहो।।
-मूलाचार, गा. 269 शब्दाचार- शब्द-शास्त्र (व्याकरण) के अनुसार अक्षर, पद, वाक्य का यत्न-पूर्वक शुद्ध पठन-पाठन करने को कहते हैं। व्यञ्जनाचार- श्रुताचार, ग्रन्थाचार, अक्षराचार आदि सब एकार्थ-वाची हैं। अर्थाचार- यथार्थ शुद्ध-अर्थ के अवधारण करने को कहते हैं। उभयाचार- अर्थ और शब्द दोनों से शुद्ध पठन-पाठन करने को कहते हैं।
कालाचार- गोसर्गिक काल (जिसमें गाएँ चरने के लिए निकलती है, ऐसा पूर्वाह्नकाल), के दोनों भाग अर्थात् और दिन का उत्तरार्ध का अंतिम अंश अर्थात् संध्या-काल प्रदोष-काल रात्रि का पूर्वार्द्ध और वैरात्रिक-काल इसप्रकार द्विविध प्रदोष-काल, रात्रि के अंतिम प्रहर की दो घड़ियाँ इन चार उत्तम कालों में पठन-पाठनादि, स्वाध्याय करने को कालाचार कहते हैं।
चारों संध्याओं की अन्तिम दो-दो घड़ियों में, दिग्दाह (लाल बादल) उल्का-पात, वज्र-पात, इन्द्रधनुष्, सूर्य-चन्द्रग्रहण, तूफान, भूकम्प, संन्यास-मरण, राजादि प्रधान-पुरुषों के मृत्यु के काल में सिद्धान्त-ग्रंथों का पठन-पाठन वर्जित है। हाँ, स्तोत्र, आराधना, धर्म-कथादिक ग्रन्थ पढ़े जा सकते हैं।
विनयाचार- कायिक, वाचिक, मानसिक, शुद्ध परिणामों से सहित शास्त्र का पढ़ना, परिवर्तन करना और व्याख्यान करना, शुद्ध जल से हाथ-पैर धोकर शुद्ध स्थान पर पर्यङ्कासन से बैठकर नमस्कार-पूर्वक शास्त्र अध्ययन करना विनयाचार है।
उपधानाचार- उपधान में अर्थात् उपधान-अपग्रह-नियम विशेष करके पठन आदि करना उपधानाचार है।
बहुमानाचार- पूजा-सत्कार आदि के द्वारा पठन आदि करना, ज्ञान के उपकरण एवं गुरु का सम्मान करना बहुमानाचार है।
अनिह्नवाचार- जिससे शास्त्र पढ़ा है, उसी गुरु का नाम लेना, कभी निज गुरु का नाम नहीं छिपाना, भले ही स्वयं कितने ही श्रेष्ठ क्यों न हो जाओ, पर गुरु तो गुरु ही होता है, परंतु एक अक्षर व एक पद प्रदान करने वाला गुरु महान् होता है, उसके उपकार को जो भूल जाता है, वह आगे नहीं बढ़ पाता; आगम का नाम नहीं