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श्लो. : 12
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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रहती, जो-कि सत्यता को ख्यापित कर दे। विश्वास रखना एवं अनुभव करना- यदि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में किञ्चित् भी सदोषता स्वयं में है, तो वह अपने-आप में ही हीन-भावना से ग्रसित रहता है। आगम के हृदय को वही खोल पाता है, जिसका हृदय विवेक-पूर्ण होता है। गणधर की पीठ (आसन) पर उसे ही बैठना चाहिए, जो तत्त्व-बोध से युक्त हो; यदि समीचीन नहीं है, तो क्या प्ररूपणा की जाएगी? ......स्वयं प्रश्न करना चाहिए, एक अक्षर भी आगम-विरुद्ध कथन में आ गया, तो ज्ञानी! तत्क्षण सम्यक्त्व की हानि समझनी चाहिए। अल्प-ज्ञानी कहलाना श्रेष्ठ है, बहुत ज्ञानी कहलाने के लोभ में मन, वाणी का प्रयोग स्वप्न में भी नहीं करना, अन्यथा आगम से बाधित हो जाओगे। वे परम उपशम-भावी जीव होते हैं, जो यथा-तत्त्व की विवेचना करते हैं, साथ में उनकी पुण्य-प्रकृति भी कार्य करती है। अशुभोदय में शुभोदय नहीं होता, एक समय में एक ही कर्म प्रबलता से प्रधान होता है। अन्तरंग में अशुभ-कषाय के साथ आगम का विपर्यास होता है। देखो! व्यक्ति जब जानकर पूर्वाचार्यों के विरुद्ध कथन करता है, तब उसे ज्ञात रहना चाहिए कि- जो विद्वान् आगमानुसार कथन करते हैं, वे जिन-मुद्रा धारण कर पंडित-मरण को प्राप्त होते हैं, जो अध्ययन काल में संक्लेश-भाव को प्राप्त होते हैं, उन्हें तीन काल में पंडित-मरण प्राप्त नहीं होता, उनकी समाधि बिगड़ जाती है। चारित्र-श्रुत को तो संयम की आराधना के लिए धारण किया जाता है, जो जब आगम-ज्ञान-प्राप्त करके द्रव्य-श्रुत के साथ-साथ भाव-श्रुत की प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है, वह शीघ्र ही कर्मातीत अवस्था को प्राप्त होता है। अन्तिम समय यदि परिणामों की विशुद्धि बनी रही है, तो समझना कि वह भाग्यवान् पुरुष निर्दोष श्रुताराधक रहा है। जिनशासन में वही ज्ञान कल्याणकारी है, जिससे आत्मा परम-बोधि को प्राप्त करे, कहा भी है
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिण-सासणे।।
-मूलाचार, गा. 267 अर्थात् जिससे तत्त्व का बोध होता है, जिससे मन का निरोध होता है, जिससे आत्मा विशुद्ध होती है, जिन-शासन में उसका नाम ज्ञान है।
ज्ञानियो! उक्त गाथा के अनुसार चिन्तवन करना भी अनिवार्य है, शास्त्र अध्ययन के साथ स्व-पर-तत्त्व का निर्णय होना चाहिए। आत्म-तत्त्व का बोध नहीं हुआ, तो ज्ञानी! ध्यान दो- आत्म-बोध-विहीन ग्यारह अंग व नौ पूर्व का पाठी अभव्य जीव