________________
821
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 8
श्लोक-8
उत्थानिका- शिष्य प्रश्न करता है- हे स्वामिन्! यह आत्मा विधि-रूप है या निषेधरूप है, मूर्तिक है या अमूर्तिक है?...
समाधान- आचार्य-देव सर्वथा भाव-वादी व अभाव-वादियों को लक्ष्यकर कहते
स स्याद्विधिनिषेधात्मा, स्वधर्म-परधर्मयोः ।
समूर्तिर्बोधमूर्तित्वादमूर्तिश्च विपर्ययात्।। अन्वयार्थ- (सः) वह आत्मा, (स्वधर्म-परधर्मयोः) स्व-धर्म और पर-धर्म में, (क्रमशः विधिनिषेधात्मा) क्रमशः विधि और निषेध-रूप, (स्यात्) होता है, (सः) वह, (बोधिमूर्तित्वात) ज्ञान मूर्ति होने से, (मूर्तिः) मूर्तिरूप/साकार है, (च) और, (विपर्ययात्) विपरीत रूप वाला होने से, (अमूर्तिः) अमूर्तिक है।।8।।
परिशीलन- भट्ट अकलंक स्वामी यहाँ पर-पदार्थ की उभय-रूपता का कथन कर रहे हैं। प्रत्येक द्रव्य में उभय-रूपता है, जो द्रव्य सद्-रूप है, वही द्रव्य असद्-रूप भी है, स्व-चतुष्टय से पदार्थ सद्-रूप है, पर-चतुष्टय से असद्-रूप भी है। कथन तो क्रमशः किया जाता है, जब सत् का कथन होगा, तब असत्-कथन गौण होगा, जब असत्-कथन होगा, तब सत्-कथन गौण होगा, परन्तु प्रति-समय सद्-भाव दोनों का ही रहेगा। तत्त्व-बोध के लिए शीतल हृदय चाहिए, परिणामों में निर्मलता है, तो सम्पूर्ण तत्त्वों का निर्णय समीचीन हो जाता है, जिसके हृदय में वक्रता है, वह तत्त्व-बोध को प्राप्त नहीं करता। ज्ञानियो! जिज्ञासु के लिए तत्त्व शीघ्र समझ में आ जाता है, हठधर्मी के लिए कभी भी सम्यक् तत्त्व-बोध नहीं होगा। कारण समझनाजिसके अंतःकरण में वक्रता रहती है, वह स्व-मत की सिद्धि चाहता है, स्व-मत की सिद्धि के लिए छलादि का प्रयोग करता है, और कषाय-भाव को प्राप्त होता है, जहाँ क्षयोपशम का प्रयोग तत्त्व-बोध में होना चाहिए था, वहाँ न होकर अपनी शक्ति का प्रयोग अतत्त्व की पुष्टि में एवं अहंकार की सिद्धि में लगा देता है। अहो! बड़े-बड़े साधु-पुरुष भी इस अहं के मद में उन्मत्त हो जाते हैं, और यथार्थ में स्व-भूल को जानते हुए भी जन-सामान्य के मध्य स्वीकार नहीं कर पाते। ज्ञानियो! ध्यान दोआगम-वाणी पर, त्याग-तपस्या में किञ्चित् न्यूनता भी रहे, तब भी मोक्ष-तत्त्व की