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श्लो. : 7
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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भी अवाच्य होता है, जब कहता है, तब वाच्य होता है, परन्तु पर को निज रूप से नहीं कहता, इसलिए अवाच्य है, निज को भी पर रूप से नहीं कहता, इसलिए भी अवाच्य है। पर को पर रूप ही कहता है, निज को निज रूप ही कहता है, इसलिए वाच्य भी है, अतः आचार्य भगवन् का कहना है- "तस्मान्नैकान्ते वाच्येनापि वाचामगोचरः" इसलिए एकान्त से, सर्वप्रकार से सर्वथा आत्म-वचन का विषय नहीं है, तथा वचनों का अविषय भी नहीं है। सप्तभंगी नय से जानना चाहिए कि कथञ्चित् वाच्य है, कथञ्चित् अवाच्य है, "न वाच्य" एकान्त पर विसंवाद अपेक्षणीय है, न ही अवाच्य एकान्त पर विसंवाद अपेक्षणीय है, वस्तु के उभय-धर्मों को समझते हुए, स्वात्म-तत्त्व की उपादेयता पर लक्ष्यपात करना ही तत्त्व-ज्ञानी श्रमण एवं श्रावक का कर्तव्य है, विसंवादों में निरूपराग वीतराग-धर्म की सिद्धि नहीं है, धर्म तो विसंवादी ही होता है।७।।
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तो
विशुद्ध-वचन * आँखें बन्द हो जाएँ * प्राणी की पहचान
होती नहीं कोई बात नहीं....., पर मत होने देना
वर्ण से.... बन्द.....
बल्कि होती है विवेक के नेत्र....।
वाणी से,
इसलिए मत बनने देना * जिस दिन
वाणी को सत्य समझ आ जाएगा.....
बाण उस दिन
बल्कि बनाना उसे तत्त्व समझ आ जाएगा....|
वीणा........।