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श्लो. : 7
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
नहीं होते, परन्तु यहाँ पर सींग का अभाव कहाँ है ?... खरगोश के सींग का अभाव बोला है, न कि सींग का अभाव है। सींग तो है, सींग की सत्ता को स्वीकार नहीं करोगे, तो फिर खरगोश में उनका अभाव कैसे करोगे?.... खरगोश के सींग नास्तिधर्म ही सींग के अस्तित्व को बतला रहे हैं कि सींग तो हैं, तभी तो खरगोश में अभाव - जन्य हेतु घटित होगा । संशयात्मक ज्ञान भी अवस्तु में नहीं होता, फिर सम्यग्ज्ञान अवस्तु में कैसे हो सकता है ?.
अहो ज्ञानियो! खरगोश के विषाण नास्ति हैं, क्या बैल के सींग भी नास्ति हैं? नहीं, बैल के तो सींग अस्ति रूप हैं। बैल में सींग के अभाव का अभाव है, खरगोश में सींग के सद्भाव का अभाव है, अतः सींग हैं भी, नहीं भी हैं। "नय-योगान्न न सर्वथा” नय के योग से ऐसा समझना, सर्वथा नहीं नहीं । अतः आत्मा भी इसीप्रकार वाणी की अपेक्षा से वाच्य है, पर स्वानुभव की अपेक्षा से अवाच्य है । वचनों से आत्मा
धर्मों का कथन तो श्रुत के द्वारा किया जा सकता है, परन्तु शब्दों में वह शक्ति नहीं है, जिससे आत्मा के द्वारा आत्मा के होने वाले स्वानुभव को चैतन्य रूप से वचनों का विषय बनाया जा सके ।
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मनीषियो ! अनुभूति मूक व्यक्ति की मिठाई का स्वाद है, वह सेवन तो कर रहा है, स्वाद भी ले रहा है, परन्तु वचनों से नहीं कह पाता, अनुभव मात्र ले रहा है, उसी प्रकार आत्मानुभव शब्द से अगोचर है, निर्विकल्प है, स्थिरता - रूप है, स्व में स्व की संवित्ति है। स्वानुभव स्व में प्रत्यक्ष रूप है, व्याख्यान में परोक्षता है, व्याख्यान शब्दाश्रित होता है, शब्द पुद्गल की पर्यायें हैं, वे परिणमनशील हैं। अनुभूति आत्माश्रित है, वह ज्ञान - गुणाश्रित ज्ञान आत्मा का ही गुण है, वह गुणी से अभिन्न है, अतः आत्मा एक अधिकरण है। ज्ञान आधेय है, आधेय बिना आधार के नहीं रहता, यह सर्व-जगत्-प्रसिद्ध है। आत्मा ज्ञान-गुण-युक्त है, ज्ञान का कार्य वेदन करना, जानना, अनुभव करना है। आत्मा जब रागादिक से युक्त होता है, तब विषय-कषाय का वेदन पराश्रित होकर करता है; किन्तु रागादिक - शून्य होता है, तब स्वाश्रित होकर स्वयं में स्वयं का वेदन करता है, तब वह अनुभूति अवाच्य है, वचन - व्यापार से शून्य है, ऐसी अवस्था में योगीजन "स्वरूपोऽहम्" का ध्यान करते हुए वचनातीत परम-धर्म प्रत्यक्ष आत्मानुभूति में लीन हैं। आगम की भाषा में परोक्ष "आद्ये परोक्षम्" सूत्रकार के अनुसार, अ-वाक् परन्तु अध्यात्म की भाषा में, वह परोक्ष भी प्रत्यक्ष है, परोक्ष - ज्ञान भी आत्मा का ही गुण है, वे आत्मा से रहित तो नहीं हैं, इसलिए आत्मानुभूति प्रत्यक्ष ही