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श्लो. : 7
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व्याख्याता है, पर सम्पूर्ण जगत् से अव्याख्यात है । आत्मा लोकालोक का कथन करता है परन्तु, आत्मा का कथन अन्य द्रव्य नहीं करता, शेष द्रव्य आत्मा के कथन में मौन हैं, एक मात्र आत्म-द्रव्य ऐसा है, जो कि स्व-पर का कथन करता है। आत्मा वाच्य है या अवाच्य है? .....यह ज्वलंत प्रश्न है । ज्ञानियो ! व्यवहार - नयाश्रित कथन है कि आत्मा वाच्य है, अवाच्य है । आत्माश्रित जो निश्चय है, उसकी दृष्टि से आत्मा जो है, वही है; न वाच्य है, न अवाच्य। जब-तक पराश्रित है, कर्माधीन-भाषा-वर्गणा का सम्बन्ध है, तभी तक जीव बोलता है, जब जीव स्वाधीन अतीन्द्रिय कर्मातीत अवस्था को प्राप्त होता है, तब यह आत्मा अवाच्य - रूप ही होती है । वचनातीत - दशा मुक्त - आत्मा की ध्रुव दशा है। अशब्द - स्वभावी जीव द्रव्य है । ज्ञानियो! एक सहज समाधान है, - यह आत्मा जीवत्वभूत है, शब्द जड़त्वभूत है, जड़ का जीवत्वपन, जीवत्व का जड़त्वपना कैसे घटित हो सकता है? ........दोनों में अत्यन्ताभाव है, दोनों एक नहीं है, न होंगे, न हुए थे, यह बात त्रैकालिक है । जो आत्मा को वचन - गोचर कहा जाता है । वह नय- विवक्षा से समझना । सोपाधिक अवस्था से आत्मा वाच्य है, निरुपाधिक अवस्था में अवाच्य है, - ऐसा नय-योग से समझना चाहिए, सर्वथा नहीं । परम-ज्ञायक-स्वभावी पर-भावों से भिन्न निज-स्वभाव से अभिन्न भगवती आत्मा है, जो स्व- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से वाच्य है, पर द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव की अपेक्षा से अवाच्य है। स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से आत्मा सद्-रूप है, पर चतुष्टय की अपेक्षा आत्मा असद्-रूप है । जहाँ सद्-रूपता है, वहीं वाच्य - वाचक-भाव हो सकता है, जहाँ सद्-रूपता ही नहीं, वहाँ वाच्य - वाचक-भाव कैसे ? .... ज्ञानियो ! पर-चतुष्टय में अन्य द्रव्य का पूर्ण अभाव रहता है, स्व-चतुष्टय में पूर्ण रूप से सद्भाव रहता है। जब पर-चतुष्टय में द्रव्य है ही नहीं, तो फिर वाच्यता कैसे हो सकती है? ..........आत्मा धर्मादि धर्मों में नास्ति रूप है, उनमें आत्म-तत्त्व का अभाव है, जहाँ अभाव है, वहाँ उसका कथन भी नहीं बनता, अतः आत्मा को पर की अपेक्षा अवाच्य ही समझें, परन्तु स्व-चतुष्टय में सद्-रूप है, जिसकी सत्ता विद्यमान है, वह वचन का विषय बनता है, जैसे कि दग्ध-ईंट पृथ्वी - काय है, उसमें जीव नहीं है, पुद्गल पिण्ड है, उसकी सत्ता का कथन जीव-द्रव्य करता है, परन्तु, ईंट में जीवत्व न तो देखा जाता है, न कहा जाता है, – इस दृष्टान्त से आत्मा को दृष्टान्त-रूप जानना चाहिए। आत्मा में स्व-चतुष्टय है, वह सत् भी है, वाच्य भी है, पर में न सत् है, न वाच्य है, परन्तु ध्यान रखना- जहाँ पर में स्व-सत्ता का नास्ति-धर्म है, वहाँ अस्ति-धर्म का ज्ञान भी हो जाता है, जैसे कि खरगोश के सींग नहीं होते हैं । यह सत्य है कि खरगोश के सींग
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन