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श्लो . : 7
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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श्लोक-7
उत्थानिका- यहाँ पुनः शिष्य जिज्ञासा प्रकट करता है- भगवन्! आत्मा एकानेक-स्वभाव वाली है, यह तो समझ में आ गया, अब यह जानना चाहता हूँ कि आत्मा सर्वथा अवक्तव्य है अथवा सर्वथा वक्तव्य है? स्वामी! समझाने का अनुग्रह करें....
समाधान- इसप्रकार अन्तेवासिन् के प्रश्न पर आचार्य-देव वक्तव्य-वादियों एवं सर्वथा अवक्तव्य-वादियों को पूर्व-पक्ष बनाकर श्लोक कहते हैं
नावक्तव्यः' स्वरूपाद्यैः, निर्वाच्यः परभावतः ।
तस्मान्नैकान्ततो वाच्यो, नापि वाचामगोचरः ।। __ अन्वयार्थ- वह आत्मा, (स्वरूपाद्यैः) स्वरूप आदि की अपेक्षा से, (अवक्तव्यः न) अवक्तव्य नहीं है, परंतु; (परभावतः) अन्य अविवक्षित धर्मों की अपेक्षा से, (निर्वाच्यः) आत्मा अवक्तव्य है, (तस्मात्) इसकारण आत्मा, (एकान्ततः) एकान्त से यानी सर्वथा, (न वाच्या) न तो वक्तव्य है और, (नापि) न सर्वथा, (वाचामगोचरः) अवक्तव्य है। 17 ||
परिशीलन- आचार्य-देव इस कारिका में आत्मा की वाच्यता, अवाच्यता पर प्रकाश डाल रहे हैं। अहो! वीतराग-शासन कितना महान् है! जहाँ प्रत्येक द्रव्य की व्याख्या स्याद्वादपद्धति से होती है, एकान्त-मत का यहाँ पर कोई स्थान नहीं है। अनेकान्त-रूप ही प्रत्येक द्रव्य है, उन द्रव्यों में मुख्य द्रव्य यदि कोई है, तो वह मात्र जीव द्रव्य है, जो-कि ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप है, अन्य द्रव्य जड़-रूप हैं। जड़-धर्मी द्रव्य स्व-पर विवेकता से शून्य ही होते हैं, एकमात्र वस्तु-स्वरूप के विवेक-ज्ञान से सम्पन्न जीव द्रव्य है। जो कुछ भी लोक का ज्ञातापन-वक्तापन है, वह-सब जीवद्रव्य के अंदर है, हेय-उपादेय-तत्त्व का बोध भी जीव-द्रव्य में ही है, ज्ञेय-भाव तो प्रत्येक पदार्थ में होता है, परन्तु ज्ञाता-भाव मात्र जीव-द्रव्य में है। अन्य द्रव्य प्रमेय तो हैं, पर प्रमाता नहीं हैं। ज्ञानियों! जीव स्वयं में प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता, प्रमिति रूप है। अभेदकारक सम्पूर्ण रूप घटित होते हैं। चैतन्य-गुण-मण्डित भगवान् आत्मा सर्व-जगत् का
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अन्यत्र 'नावक्तव्यः' की जगह 'स वक्तव्यः' पाठ भी मिलता है, पर वह अर्थ की संगति एवं बहु-पाठ-उपलब्धता के आधार पर ग्राह्य नहीं है।