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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 6
कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत। विद्याऽविद्या-द्वयं न स्यात् बन्ध-मोक्ष-द्वयं तथा।।
-आप्तमीमांसा, श्लो. 25 अर्थात् अद्वैत मानने पर शुभ कर्म और अशुभ कर्म, दो कर्म नहीं होते। यह पुण्य, यह पाप है; इह-लोक, पर-लोक, ज्ञान, अज्ञान, बन्ध-मोक्ष, जीव-प्रदेश और कर्म-प्रदेशों का परस्पर मिलना बन्ध तथा मोक्ष (आठ प्रकार के कर्मों का छूटना) यह-सब कुछ भी नहीं होगा। - यदि पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष को अद्वैतवादी स्वीकारते हैं, तो ध्यान रखो- द्वैत की ही सिद्धि होती है, अतः स्याद्वाद् नय का आलम्बन लेकर ही कथन करना चाहिए, वस्तु स्वभाव की एकता-अखण्डता की अपेक्षा द्रव्य एक है, नाना धर्मों की अपेक्षा अनेक है। अतः ज्ञानियो! वह आत्मा एक-रूप ही नहीं है, किस कारण से? ....घट-पट आदि विषयों को जानने वाले अनेक ज्ञान-स्वभावी होने के कारण से, तो क्या वह अनेक-रूप है?..वह अनेक भी नहीं है, किस कारण से? ....चैतन्य ही उसका एकमात्र स्वरूप होने के कारण; तो आत्मा कैसी होगी? वह एकानेक स्वभाव वाली होती है, इसप्रकार आत्मा के सत्यार्थ-स्वरूप का बोधकर निश्चयीभूत ध्रुव, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक-स्वभावी परम पारिणामिक स्यन्दीभूत-दशा की प्राप्ति का पुरुषार्थ करना प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है।।६।।
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* पड़ जाते सत्य के संस्कार जिसके जीवन में.... नहीं हिला पाती असत्य की आँधी
विशुद्ध-वचन
* नहीं जानता जो शिव को, रोता वही शव के लिए सब के लिए, जो जानता शिव को करता संस्कार वह शव के........।
उसे
फिर....।