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श्लो. : 6
अहो मुमुक्षुओ! ज्ञेय के अनुसार ज्ञान में भी परिणमन होता है, अन्तर इतना है कि स्वात्म-द्रव्य को ज्ञान तन्मय होकर जानता है, परन्तु पर- ज्ञेयों को तन्मय होकर नहीं जानता, मात्र ज्ञाता-भाव से जानता है । कथंचित् ज्ञान ज्ञेय-रूप होता है, परंतु सर्वथा नहीं। ज्ञान ज्ञान है, ज्ञेय ज्ञेय है। ज्ञान चैतन्यधर्मी है, ज्ञेय चैतन्य एवं अचैतन्य उभय रूप है। यदि ज्ञान तन्मयभूत ज्ञेय-रूप परिणत हो जाएगा, तब तो ज्ञान में उचितपना आ जाएगा। अतः ज्ञान पर - ज्ञेयों में साक्षीभूत है, परन्तु तन्मय - रूप नहीं है, फिर भी ज्ञान ज्ञेयों में जाता है, तब वह ज्ञान उस ज्ञेय में अपने उपयोग के लिए था, इसलिए ज्ञेय रूप था । विषय- कषाय में जब उपयोग जाता है, उस समय ज्ञान का परिणमन अशुभ- रूप होता है। यहाँ पर एक बात पर ध्यान रखना - यदि विषय-कषाय परिणति-रूप हैं, तो अशुभ - उपयोग है, विषय - कषाय ज्ञप्ति-रूप मात्र हैं, तो अशुभ- उपयोग नहीं है, यानी विषय को जान रहा जीव और हेय समझता है। सेवन नहीं कर रहा, यह विषय है, यह कषाय है - ऐसा निज ज्ञान में ज्ञेय बना रहा है, दृष्टि हेय - भूत है, तो वह जीव न तत्-कारण-बन्धक है, न अशुभोपयोगी ही है । ज्ञाता- दृष्टापने में बन्ध नहीं है, विषय-कषाय की कृति को प्राप्त होने में बन्धक-भाव है, यहाँ पर ऐसा समझना चाहिए कि जब दोष- गुण दोनों को ही जानेंगे, तभी दोषों से अपेक्षा भाव आएगा और गुणों से अपेक्षा - भाव उत्पन्न होगा । सम्यकदृष्टि हेय-उपादेय और उपेक्षा आदि तीनों भावों से अपने जीवन को चलाता है, हेय को त्यागता है, उपादेय को ग्रहण करता है; जो न हेय हैं, न उपादेय हैं, वे उपेक्षणीय हैं । अहो प्रज्ञात्माओ ! ज्ञान के नानात्व भाव से आत्मा में नाना-रूपता है, इसमें संशय नहीं करना, परम-आस्था के साथ स्वीकारना ।
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
ज्ञान की नाना-रूपता आत्मा के ज्ञान गुण का ही परिणमन है, वह कोई अन्य वस्तु से, अन्य वस्तु में नहीं है, निज द्रव्य का ही धर्म है, सम्पूर्ण गुण- पर्यायों का स्थान द्रव्य होता है। आत्मा द्रव्य है, ज्ञान-गुण है, वह गुणी से द्रव्य से पृथक् नहीं रहता, इसलिए आधार-दृष्टि से आत्मा एक-स्वभावी है, परन्तु ब्रह्माद्वैतवादियों की भाँति नहीं, सर्वथा एकान्त-रूप अद्वैत-भाव में लीन मिथ्यात्व के पोषक निज आत्मा के वंचक जीव अनेकान्त-विद्या के ज्ञान से शून्य होकर एक मात्र ब्रह्म-भाव को ही सर्वविश्व घोषित करते हैं, अन्य लोक में कुछ नहीं है, सभी कुछ ईश्वर-भाव है। मनीषियो ! यह अद्वैत-वादियों का मिथ्या अपलाप मात्र है, पदार्थों का निर्णय स्याद्वाद् - नय से करना चाहिए, वही सम्यक् है । जैसा कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने प्ररूपित किया है
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