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श्लो. : 6
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
ज्ञानियो ! आत्मा नाना प्रकार से नाना रूप है, आत्मा अनन्त गुणों से युक्त अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य से युक्त है । अनन्त स्वभाव-धर्म भी आत्मा में होते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, कामादि विकार - विभाव धर्म भी आत्मा में होते हैं। अन्तर इतना है कि शुद्धात्मा में स्वभाव-धर्म होते हैं, अशुद्धात्मा में विभावधर्म होते हैं । उभय धर्मों की अपेक्षा से भी आत्मा में नानात्वपना है । जब एक I ज्ञान-गुण को देखते हैं, तब ज्ञान गुण से भी आत्मा में नाना-पन है । देखो - ज्ञान गुण की सामान्य से आठ पर्यायें हैं, पाँच सम्यग् - रूप, तीन मिथ्या - रूप । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, -ये पाँच तो सम्यग्ज्ञान की पर्याये हैं; कु-मति, कुश्रुत, कु-अवधि – ये तीन मिथ्याज्ञान की पर्यायें हैं। इनमें श्रुतज्ञान एक ऐसा ज्ञान है। जो स्वार्थ-परार्थ-रूप है, शेष ज्ञान स्वार्थ मात्र हैं । ज्ञानियो ! अधिक नहीं श्रुतज्ञान को ही ले लीजिए- कितने विकल्पों में चलता है, सर्वाधिक प्रयोजनभूत ज्ञान श्रुत है । बन्ध-मोक्ष में अपना पूर्ण अधिकार रखता है, उत्थान - पतन दोनों में अपनी सहकारिता देता है । सम्यक् के साथ श्रुत-प्रयोग किया जाता है, शुभोपयोग व शुद्धोपयोग में तब यह श्रुत-ज्ञान मोक्ष का साधन होता है, कल्याण मार्ग को प्रशस्त करता है। जब मिथ्यात्व असंयम-प्रमाद व कषाय-योग के साथ वर्तन करता है, तब वही श्रुत अशुभ उपयोग रूप होता हुआ अप्रशस्तता को प्राप्त होकर संसार वृद्धि को प्राप्त होता है । नरकादि-दुर्गति में जीव को ले जाता है; अहो! क्या दशा जीव के परिणामों की है । यह ज्ञायक भाव निर्मल रहे - ऐसा पुरुषार्थ प्रज्ञ-पुरुषों को करना चाहिए। स्व-ज्ञान को स्व-ज्ञान से सँभाल लिया जाये, इससे बड़े कल्याण का कोई अन्य मार्ग नहीं होता। जो जीव स्व- ज्ञान को स्व-चरित में लगाता है, वह परम निर्वाण का भाजन होता है, तथा जो जीव स्व-ज्ञान को पर-चरित में लगाता है, वह संसार-भ्रमण को तैयार रहता है। हे प्रज्ञात्मन्! दोनों कार्य तेरे हाथ में ही हैं । ज्ञान का धर्म तो नानात्व भाव है, वह तो विकल्प-रूप होता है, निज उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप है। ज्ञान गुण का परिणमन निज परिणामीपन में त्रैकालिक चल रहा है। आत्मा जो वेदन कर रहा है, वह इस गुण के माध्यम से ही करता है। ज्ञान - दर्शन दो ही गुण तो चेतन-धर्मी हैं, शेष गुण तो आत्मा में जड़-धर्मी हैं। ज्ञान का परिणमन जब हम ज्ञेयों की अपेक्षा से देखते हैं, तब तो ज्ञानी तू स्वयं थक जाएगा। विचारते-विचारते, पर फिर भी ज्ञान कभी थका नहीं, अपने कार्य से । लोक में अनन्त ज्ञेय हैं, ज्ञान ने सम्पूर्ण ज्ञेयों को अपना विषय बनाया है। कैवल्य में जगत् का कोई भी ज्ञेय अवशेष बचा नहीं है, जिसे केवलज्ञान ने अपना विषय न बनाया हो ।
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