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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 5
3. विक्रिया-समुद्घात- किसी प्रकार की विक्रिया (कामादि-जनित विकार) उत्पन्न
करने व कराने के अर्थ मूल शरीर को न त्यागकर जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर
जाना है, उसको विकुर्वणा अथवा विक्रिया-समुद्घात कहते हैं। 4. मारणान्तिक-समुद्घात- मरणान्त समय में मूलशरीर को न त्याग करके जहाँ
कहीं इस आत्मा में आयु बाँधी है, उसके स्पर्शने को जो प्रदेशों का शरीर बाह्य
गमन करता है, सो मारणान्तिक-समुद्घात है। 5. तैजस्-समुद्घात- अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को
देखकर क्रोध उत्पन्न हुआ है जिसके, ऐसा जो संयम का निधान महामुनि उनके वाम कंधे से सिंदूर के ढेर की-सी कान्ति वाला : बारह योजन लम्बा सूच्यांगुल के संख्येय भाग प्रमाण मूल विस्तार और नव योजन के अग्र विस्तार को धारण करने वाला काहल (बिलाव) के आकार का धारक पुतला निकल करके वाम प्रदक्षिणा देकर मुनि के हृदय में स्थित जो विरुद्ध-पदार्थ है, उसको भस्म करके और उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जाये; जैसे- द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकला, उसने द्वारिका को भस्म करके द्वीपायन मुनि को भस्म किया और वह पुतला स्वयं भी भस्म हो गया। इसे अशुभ तैजस्-समुद्घात कहते हैं। जगत् को रोग अथवा दुर्भिक्ष आदि से पीड़ित देखकर उत्पन्न हुई है कृपा जिसके, ऐसे जो परम संयम-निधान महाऋषि उनके मूल शरीर को नहीं त्यागकर पूर्वोक्त देह के प्रमाण को धारण करने वाला अच्छी सौम्य आकृति का धारक प्रमत्त मुनि के दक्षिण स्कंध से निकलकर प्रदक्षिणा कर रोग व दुर्भिक्ष आदि को दूर कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाय, यह शुभ रूप
तैजस्-समुद्घात है। 6. आहारक-समुद्-घात- पद और पदार्थ के बारे में जिसके भ्रान्ति उत्पन्न हुई है,
-ऐसा जो परम ऋद्धि का धारक महर्षि, उसके मस्तक में मूल शरीर को न छोड़कर निर्मल स्फटिक की आकृति को धारण करने वाला एक हाथ पुरुषाकार निकालकर अन्तर्मुहूर्त के बीच में जहाँ कहीं भी केवली को देखता है, और उन केवली के दर्शन से अपने आश्रय जो मुनि उसके पद और पदार्थ का निश्चय उत्पन्न कर फिर अपने स्व-स्थान में प्रवेश कर जाये, सो यह आहारक-समुद्घात